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देवकाण्ड: २]
'मणिप्रभा'व्याख्योपेतः
इनमें से १म द्रव्यप्रमाणके २ भेद हैं -१ संख्याप्रमाण और २ उपमाप्रमाण । संख्याप्रमाणके ३ भेद हैं-१ संख्येय, २ असंख्येय और ३ अनन्त । संख्येयप्रमाणके भी ३ भेद हैं-१ जघन्य, २ अजघन्योत्कृष्ट और ३ उत्कृष्ट । असंख्येयके ३ भेद हैं-१ परीतासंख्येय, २ युक्तासंख्येय और ३ अनन्तासंख्येय । इन तीनों (परीतासंख्येय, युक्तासंख्येय और अनन्तासंख्येय )में प्रत्येकके ३-३ भेद हैं-१ जघन्य, २ उत्कृष्ट और ३ मध्यम ( इस प्रकार असंख्येयके ६ भेद होते हैं )। इसी प्रकार अनन्तके भी ३ भेद हैं१परीतानन्त, २ युक्तानन्त और ३ अनन्तानन्त । इन तीनों (परीतानन्त, युक्ता. नन्त और अनन्तानन्त ) में प्रत्येकके ३-३ भेद हैं-१ जघन्य, २ उत्कृष्ट और ३ मध्यम (इस प्रकार अनन्तप्रमाणके भी ह भेद हो जाते हैं )। उपमाप्रमाण (द्रव्यप्रमाणके २य भेद ) के ८ भेद हैं-१ पल्य, २ सागर, ३ सूची, ४ प्रतर, ५ घनाङ्गल, ६ जगच्छे णी, ७ लोक और ८ प्रतर लोक । इनमें १म पल्यप्रमाणके ३ भेद हैं-१ व्यवहारपल्य, २ उद्धारपल्य और ३ अद्धापल्य ( इसका विशद विवेचन आगे किया जायेगा)। क्षेत्रप्रमाण ( लोकोत्तरप्रमाणके ४ भेदोंमें से २य प्रमाण )के २ भेद हैं-१ अवगाह क्षेत्र और २ विभागनिष्पन्न क्षेत्र । उनमें से १म अवगाह क्षेत्र एक दो तीन चार संख्येय असंख्येय और अनन्त प्रदेशवाले पुद्गल द्रव्यको अवकाश देनेवाले श्राकाशप्रदेशोंकी दृष्टिसे अनेक प्रकारका है। २ य विभागनिष्पन्न क्षेत्र भी .असंख्यात आकाशश्रेणी, क्षेत्रप्रमाणांगुलका एक असंख्यात भाग, असंख्यात प्रमाणांगुलके असंख्यात भाग, एक क्षेत्र प्रमाणांगुलके भेदसे अनेक प्रकारका होता है । कालप्रमाण के भी अनेक भेद हैं, यथा-काल, आवली, निश्वासउच्छवास, प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, अहोरात्र ( दिन-रात ), पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्षे, (८४ लाख वर्षका) पूर्वाङ्ग, (८४ लाख पूर्वाङ्गका) पूर्व; इसी प्रकार उत्तरोत्तर 'नयुतांग नयुत, कुमुदांग कुमुद, पद्मांग पद्म, नलिनांग नलिन, महालतांग महालता' आदि काल-वर्षों की गणना गणनीय (गिवने योग्य ) होनेसे 'संख्येय' कही जाती है । इसके अागे पल्योपम, सागरोपम श्रादि काल असंख्येय हैं । उनके अनन्त काल हैं, जो अतीत एवं अंतगत रूप हैं तथा वे सर्वज्ञके ही प्रत्यक्षगम्य हैं । भावप्रमाण पञ्चविध ज्ञानको कहा जाता है। . ___ अब 'पल्य' प्रमाणको स्पष्ट करनेके प्रसङ्गमें पहले 'योजन' प्रमाणको स्पष्ट किया जाता है-अनन्तानन्त परमाणु = १ उत्संज्ञासंज्ञा, ८ उत्संज्ञासंज्ञा = १ संज्ञासंज्ञा, ८ संज्ञासंज्ञा = १ त्रुटिरेणु, ८ त्रुटिरेणु = १ प्रसरेणु, ८ त्रसरेणु = १ रथरेणु, ८ रथरेणु = १ देवकुरु = उत्तर देवकुरुके मनुष्यका वालाग्र, उक्त ८ वालाग्र = हैरण्यवत और हैमक्त क्षेत्रके मनुष्यका वालाग्र,