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अभिधानचिन्तामणिः
१ऽयोपपादुका देवनारकाः। २७सयोनय इत्यष्टा३वुद्भिदुद्भिज्जमुद्भिदम् ॥ ४२३ ।। इत्याचार्यहेमचन्द्रविरचितायाम् “अभिधानचिन्तामणि-- नाममालायां" चतुर्थस्तिर्यकाण्डः
समाप्तः ॥ ४॥ १. देव तथा नारक अर्थात् देवता तथा नरकवासी जीव. 'उपपादुकाः' भर्थात् स्वयमेव उत्पन्न होनेवाले हैं।
२. ये ८ (अण्ड, पोत, रस, जरायु, स्वेद, सम्मूर्छन, उद्भिद् और उपपादुक) 'सयोनयः' अर्थात् जीवोंके उत्पत्तिस्थान हैं ॥ . . .
३. 'उद्भिद्' ( पृथ्वीको फोड़कर पैदा होनेवले . वृक्ष, लता, धान्य श्रादि ) के गम हैं-उद्भिद्, उद्भिवम् , उद्भिदम् ॥ । इस प्रकार त्य-व्याकरणाचार्यादिपविभूषितमिभोपाह भीहरगो . विन्दशा.चित 'मणिप्रभा' व्याख्या में चतुर्थ
'तिर्यक्कार समाप्त हुआ ॥ ४ ॥