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( ३२ ) - दुष्ट शिक्षित घोड़े को शूकल, कोड़ा मारने योग्य घोड़े को कश्य, छाती तथा मुख पर बालों की भौंरीवाले घोड़े को श्रीवृक्षकी; हृदय, पीठ, मुख तथा दोनों पार्श्व भागों में श्वेत चिह्नवाले घोड़े को पञ्चभद्र, श्वेत घोड़े को कर्क, पिंगल वर्ण घोड़े को खोङ्गाह, दूध के समान रंगवाले घोड़े को सेराह, पीले घोड़े को हरिय, काले घोड़े को खुङ्गाह, लाल घोड़े को क्रियाह, नीले घोड़े को नीलक, गधे के रङ्गवाले घोड़े को सुरूहक, पाटल वर्ण के घोड़े को वोरुखान, कुछ पीले वर्णवाले तथा काले घुटनेवाले को कुलाह, पीले तथा लाल वर्णवाले को उकनाह, कोकनद के समान वर्णवाले को शोण, सब्ज वर्ण के घोड़े को हरिक, कांच के समान श्वेत वर्ण के घोड़े को पङ्गुल, चितकबरे घोड़े को हलाह और अश्वमेध के घोड़े को ययु कहा गया है।
इतना ही नहीं घोड़े की विभिन्न चालों के विभिन्न नाम आये हैं। स्पष्ट है कि घोड़ों को अनेक प्रकार की चाले सिखलायी जाती थीं। . ___ अभिधानचिन्तामणि की. स्वोपज्ञवृत्ति में अनेक प्राचीन आचार्यों के प्रमाण वचन तो उद्धत हैं ही, पर साथ ही अनेक शब्दोंकी ऐसी व्युत्पत्तियाँ भी उपस्थित की गयी हैं, जिनसे उन शब्दों की आत्मकथा लिखी जा सकती है। शब्दों में अर्थ परिवर्तन किस प्रकार होता रहा है तथा अर्थविकास की दिशा कौन सी रही है, यह भी वृत्ति से स्पष्ट है। वृत्ति में व्याकरण के सूत्र उद्धत कर शब्दों का साधुत्व भी बतलायां गया है । यथा
भाष्यते भाषा (क्तटो गुरोर्व्यअनात् इत्यः, ५।३।१०६)। -२११५ वण्यते वाणी ('कमिवमि-' उणा०६१८) इति णिः । ड्यां वाणी ।
-२०१५ श्रूयते श्रुतिः (श्रवादिभ्यः ५।३।९२) इति तिः।
-२११६२ सुष्टु आ समन्तात् अधीयते स्वाध्यायः (इडोऽपदाने तु टिवा ५।३।१९) इति घञ्।
-११६३ अवति विघ्नाद् ओम् अव्ययम (अवेर्मः-उणा० ९३३ ) इति मः, ओमेक ओङ्कारः-(वर्णव्ययात् स्वरूपेकारः ७।२।१५६) इति कारः -२१६४
प्रस्तूयते प्रस्तावः-(प्रात् स्तुद्रुस्तोः ५।३।६७ ) इति घञ् .-२।१६८
न श्रियं लाति-अश्लीलम्-न श्रीरस्यास्तीति वा, सिध्मादित्वात् ले ऋफिडादित्वात् रस्य लः।
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१ देखें-का० ४ श्लो० ३०१-३०९