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अभिधानचिन्तामणिः १अनुवृत्तिस्त्वनुरोधो रहेरिको गूढपूरुषः। प्रणिधिर्यथाहवर्णोऽवसो मन्त्र विच्चरः ॥ ३६७ ।।। वार्तायन: स्पशवार ३आप्तप्रत्ययितौ समौ। ४सत्रिणि स्षाद् गृहपतिपदूतः संदेशहारकः ॥ ३६॥ ६सन्धिविग्रहयानान्यासनद्वैधाश्रया अपि । षड्गुणाः
विमर्श-इन पांचों में बाहर राज-मण्डल पूरा हो गया । वे १२ राजमण्डल ये हैं-१ शत्र, २ मित्र, ३ शत्रका मित्र, ४ मित्रका मित्र, ५ शत्रुके मित्रका मित्र ६ पाणिग्राह ( अपने पीछे से सहायतार्थ श्रानेवाला ), ७ आक्रन्द (शत्रु के पीछे सहायतार्थं आनेवाला ), ७ पाणिग्राहासार ( सहायतार्थ शत्रके पक्ष से बुलाया गया ), ६ आक्रन्दासार ( सहायतार्थ अपने पक्ष से बुलाया गया), १० विजिगीषु (स्वयं विजय चाहने वाला), ११ मध्यम और १२ उदासीन । इनमें से पहले वाले ५ आगे चलते या सामने रहते हैं, अनन्तर चार ( ६ से ६ तक ) विजयाभिलाषी राजा (१०) के पीछे रहते हैं, ११ वां (मध्यम ) दोनों पक्षवालों का वध करने में समर्थ होने के कारण स्वतन्त्र होता है और १२ वा ( उदासीन ) उन सभी के मण्डल से बाहर रहता है और स्वतन्त्र एवं सर्वाधिक बलशाली होता है । ( शिशुपालवध की 'सर्वकषा' व्याख्या २८१ ) ।।
१. 'अनुरोध' के २ नाम है-अनुवृत्तिः अनुरोधः ॥ ..
२. 'गुप्तचर'के १० नाम है-हेरिकः,, गूढपूरुषः, प्रणिधिः, यथार्हवर्णः, अवसः, मन्त्रवित् (-विद् ), चरः, वार्तायनः, स्पशः, चारः ॥
३. 'आप्त, विश्वसनीय'के २ नाम है-श्राप्तः, प्रत्ययितः ।। ४. 'गृहपति'के २ नाम है-सत्री (-त्रिन् ), गृहपतिः॥
५. 'दूत (मौखिक सन्देश पहुँचानेवाला) के २ नाम हैं-दूतः, संदेशहारकः ।।
६ सन्धिः, विग्रहः, यानम्, आसनम, द्वैधम, आश्रयः-ये राजनीतिमें 'षड्गुणः' कहे जाते हैं। . विमर्श-१ सन्धि-(कर देना स्वीकारकर या उपहार आदि देकर शत्रपक्षसे मेल करना ), २.विग्रह-(अपने राष्ट्र से दूसरे राष्ट्रमें जाकर युद्ध, दाह श्रादि करते हुए विरोध करना ), ३ यान-(चढ़ाई करनेके लिए प्रस्थान करना), ४-श्रासन--(शत्रपक्षसे युद्ध नहीं करते हुए अपने दुर्ग या सुरक्षित स्थानमें चुप-चाप बैठ जाना), ५ वैध-(एक राजाके साथ सन्धिकर अन्यत्र