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अभिधानचिन्तामणिः
-१अस्याः स्वं मानलीलास्मरादयः। २लीला विलासो विच्छित्तिर्विव्वोकः किलिकिश्चितम् ।। १७१ ।। मोटायितं कुटटुमितं ललितं विहृतन्तथा । विभ्रमश्चेत्यलङ्काराः स्त्रीणां स्वाभाविका दश ।। १७२ ।।
प्रागल्भ्यौदार्यमाधुयशोभाधीरत्वकान्तयः ।
दीप्तिश्चायत्नजाः'मृगाक्षी' पदमें मृगके नेत्ररूप 'उपमान'से स्त्रीका अक्षि ( नेत्र ) रूप अङ्ग विशेषित हुआ है, 'मत्तेभगमना' पदमें 'उपमान' रूप मत्तेभगमन (मतवाले हाथीकी चाल ) से स्त्रीका गमन विशेषित है, 'वामाक्षी'पदमें 'वामत्व' ( सुन्दरता )से 'नेत्र' रूपी स्त्रीका अङ्ग विशेषित है और 'सुस्मिता' पद्में 'सु'के अर्थ शोभनत्व से 'स्मित' रूपी कर्म विशेषित है। इसी प्रकार "वरारोहा, वरवर्णिनी, प्रतीपदर्शिनी,........."नामोंके विषयमें तर्क करना चाहिए ।
१. इस स्त्रीके धन 'मानः' लीला, स्मरः, ( स्वाभिमान, लीला, काम ) आदि ('आदि शब्दसे 'मनोविलास' आदिका संग्रह है ) हैं। अतएव 'मानिनी लीलावती, स्मरवती, (मान, लीला तथा स्मरवाली ) आदि यौगिक नाम स्त्रियोंके होते हैं ।
२. स्त्रियोंके स्वभावसिद्ध १० अलङ्कार होते हैं, उनका क्रमशः अर्थसहित वक्ष्यमाण १-१ नाम है-लीला ( वचन, वेष तथा चेष्टादिसे प्रियतमका अनुकरण करना ), विलासः ( स्थान तथा गमनादिकी विशिष्टता), विच्छित्तिः (शोभाजन्य गवसे थोड़ा भूषणादि धारण करना), विव्वोक: ( सौभाग्यके दर्पसे इष्ट वस्तुत्रोंमें अवज्ञा रखना ), किलकिञ्चितम् ( सौभाग्यादिसे मुस्कान आदिका संमिश्रण ), मोटायितम् (प्रियकथा-प्रसङ्गमें तद्भाव की भावनासे उत्पन्न कान खुजलाना आदि चेष्टा ), कुटुमितम् (+ कुटमितम् अधरादि क्षतकालमें हर्ष होनेपर भी हाथ या मस्तकादिके कम्पन द्वारा निषेध करते हुए निषेध का प्रदर्शन ), ललितम् ( सुकुमारता पूर्वक अङ्गन्यास अर्थात् गमन श्रादि ), विहृतम् ( बोलने आदिके अवसरपर भी चप रहना), विभ्रमः ( प्रियतम के आने · पर हर्षादिके कारण विभूषणोंका उलटा-पुलटा (अस्थानमें ) धारण करना )।
विमर्श-साहित्यदर्पण'कार विश्वनाथ ने उक्त 'दश अलङ्कारों के अतिरिक्त स्त्रियोंके और भी ८ स्वभावसिद्ध अलङ्कार कहे हैं, यथा-मदः, तपनम्, मौग्ध्यम्, विक्षेपः, कुतूहलम, हसितम्, चकितम्, केलिः ॥ .
३. वक्ष्यमाण ७ अलङ्कार स्त्रियोंके अयत्नज (विना प्रयत्न-विशेषके होनेवाले ) हैं, उनका अर्थ सहित १-१ नाम है, यथा-प्रागल्भ्यम् (दिठाई, निर्भयता ), औदार्यम् (अमर्षादिके अवसरपर भी नम्रता ), माधुर्यम्