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( १६ ) प्रभावकचरित से यह भी ज्ञात होता है कि सोमचन्द्र ने अपने गुरु देवचन्द्र के साथ देश-देशान्तरों में परिभ्रमण कर शास्त्रीय एवं व्यावहारिक ज्ञान की वृद्धि की थी। हमें इनका नागपुर में धनद नामक सेठ के यहाँ तथा देवेन्द्र सूरि और मलयगिरि के साथ गौड देश के खिल्लर ग्राम में निवास करने का उल्लेख मिलता है। यह भी बताया जाता है कि हेमचन्द्र ने ब्राह्मी देवीजो विद्या की अधिष्ठात्री मानी गयी है-की साधना के निमित्त कश्मीर की एक यात्रा आरम्भ की। वे इस साधना द्वारा अपने समस्त प्रतिद्वन्द्वियों को पराजित करना चाहते थे। मार्ग में जब ताम्रलिप्ति होते हुए रेवन्तगिरि पहुँचे तो नेमिनाथ स्वामी की इस पुण्य भूमि में इन्होंने योगविद्या की साधना आरम्भ की । इस साधना के अवसर पर ही सरस्वती उनके सम्मुख उपस्थित हुई और कहने लगी-'वत्स ! तुम्हारी समस्त मनःकामनाएँ पूर्ण होंगी। समस्त प्रतिवादियों को पराजित करने की क्षमता तुम्हें प्राप्त होगी।' इस वाणी को सुनकर हेमचन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी आगे की यात्रा स्थगित कर दी और वापस लौट आये। सूरिपद-प्राप्ति
सोमचन्द्र की अद्भुत प्रतिभा एवं पाण्डित्य का प्रभाव सभी पर था । अतः वि० सं० १९६६ में २१ वर्ष की अवस्था में ही उन्हें सूरिपद से विभूषित कर दिया गया। अब हेमचन्द्र सोमचन्द्र नहीं रहे, बल्कि आचार्य हेमचन्द्र बन गये।
आचार्य हेम और सिद्धराज जयसिंह __ आचार्य हेमचन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के जनजागरण और जीवनोस्थान के कार्यों में अपने को समर्पित कर दिया था। प्रत्येक अवसर पर वे नयी सूझ-बूझ से काम लेते थे और सदा के लिए अपनी तलस्पर्शी मेधा का एक चमत्कारिक प्रभाव छोड़ देते थे। संभवतः चेतना की इस विलक्षणता ने ही महापराक्रमी गुर्जरेश्वर जयसिंह सिद्धराज को आकृष्ट किया था। आचार्य हेमचन्द्र का सिद्धराज के साथ प्रथम परिचय कब हुआ, इसका प्रामाणिक रूप से तो कोई भी विवरण प्राप्त नहीं होता है, पर अनुमान ऐसा है कि मालक-विजय के अनन्तर विक्रम संवत् ११९१-११९२ में आशीर्वाद देने के लिए आचार्य हेम सिद्धराज की राजसभा में पधारे थे। सिद्धराज मालव के १ विशेष के लिए देखें-Life of Hemchandra, IIch. तथा काव्यानुशासन की अंग्रेजी प्रस्तावना P.P. CCLXVI-CCLXIX.