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अमरकोश का दूसरा नाम 'नामलिङ्गानुशासन' भी है। यह कोश बड़ी वैज्ञानिक विधि से संकलित किया गया है। इसमें समानार्थक शब्दों का संग्रह है और विषय की दृष्टि से इसका विन्यास तीन काण्डों में किया गया है । तृतीयकाण्ड में परिशिष्ट रूप में विशेष्यनिधन, संकीर्ण, नानार्थक शब्दों, अव्ययों एवं लिङ्गों को दिया गया है। इसकी अनेक टीकाओं में ग्यारहवीं शताब्दी में लिखी गयी क्षीरस्वामी की टीका बहुत प्रसिद्ध है । इसके परिशिष्ट के रूप में संकलित पुरुषोत्तमदेव का त्रिकाण्डशेष है, जिसमें उन्होंने विरल शब्दों का संकलन किया है । इन्होंने हारावली नाम का एक स्वतन्त्र कीशग्रन्थ भी लिखा है, इसमें ऐसे नवीन शब्दों पर प्रकाश डाला गया है, जिनका उल्लेख पूर्ववर्ती ग्रन्थों में नहीं हुआ है। इस कोश में समानार्थक और नानार्थक दोनों ही प्रकार के शब्द संगृहीत हैं । इस कोश के अधिकांश शब्द बौद्धग्रन्थों से लिये गये हैं ।
कवि और वैयाकरण के रूप में ख्यातिप्राप्त हलायुध ने 'अभिधानरत्नमाला' नामक कोशग्रन्थ ई० सन् ९५० के लगभग लिखा है । इस कोश में ८८७ श्लोक हैं | पर्यायवाची समानार्थक शब्दों का संग्रह इसमें भी है । ग्यारहवीं शताब्दी में विशिष्टाद्वैतवादी दाक्षिणात्य आचार्य यादव प्रकाश ने वैज्ञानिक ढंग का 'वैजयन्ती' कोश लिखा है । इसमें शब्दों को अक्षर, लिङ्ग FT प्रारम्भिक वर्णों के क्रम से रखा गया है ।
नवमी शती के महाकवि धनञ्जय के तीन कोश ग्रन्थ उपलब्ध हैंनाममाला, अनेकार्थ नाममाला और अनेकार्थ निघण्टु । नाममाला के अन्तिम पथ से इनकी विद्वत्ता के सम्बन्ध में सुन्दर प्रकाश पड़ता है :
ब्रह्माणं समुपेत्य वेदनिनदव्याजात्तुषाराचलस्थानस्थावरमीश्वरं सुरनदीव्याजात्तथा केशवम् । अप्यम्भोनिधिशायिनं जलनिधिर्ध्वानोपदेशादहो फूत्कुर्वन्ति धनंजयस्य च भिया शब्दाः समुत्पीडिताः ॥
धनञ्जय के भय से पीडित होकर शब्द ब्रह्माजी के पास जाकर वेदों के निनाद के छल से, हिमालय पर्वत के स्थान में रहनेवाले महादेव को प्राप्त होकर उनके प्रति स्वर्गगङ्गा की ध्वनि के मिष से एवं समुद्र में शयन करने वाले विष्णु के प्रति समुद्र की गर्जना के छल से जाकर पुकारते हैं, यह नितान्त आश्चर्य की बात है। इसमें सन्देह नहीं कि महाकवि धनञ्जय का शब्दों के ऊपर पूरा अधिकार है
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