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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ -उपाध्याय ज्ञानसागर महाराज भारतवर्ष के धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक जीवन में जिन महान् विभूतियों का चिरस्थायी प्रभाव है, उनमें जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर देवाधिदेव भगवान् पार्श्वनाथ अन्यतम हैं। यही कारण है कि उनके पावन जीवन को जनमानस में प्रचारित-प्रसारित करने की भावना से अनेक कवियों ने प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में प्रचुर साहित्य की सरंचना की है। भगवान् पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी के समान ही एक ऐतिहासिक महामानव तथा इस कालचक्र की चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा में तेईसवें तीर्थंकर है। महावीर के पिता सिद्धार्थ तथा माता त्रिशला पापित्यीय थे। आठवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य देवसेन ने दर्शनसार नामक अपने ग्रन्थ में उल्लेख किया है महात्मा बुद्ध प्रारंभ में जैन थे। उन्होंने जैनाचार्य पिहितास्रव से सरयू नदी के तट पर अवस्थित पलाश नामक ग्रोम में पार्श्वनाथ की परम्परा के संघ में दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा के पश्चात् उनका नाम बुद्धकीर्ति रखा गया था। बौद्धधर्म के सुप्रसिद्ध विद्वान श्री धर्मानन्द कौशाम्बी ने अपनी पुस्तक 'पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म' में यह सिद्ध करने का सयुक्तिक प्रयास किया है कि महात्मा बुद्ध ने भ० पार्श्वनाथ द्वारा उपदिष्ट चातुर्याम धर्म को ही मध्यम मार्ग करके अपने धर्म में समाविष्ट किया है। चातुर्याम के अन्तर्गत अहिंसा, सत्य, अचौर्य एवं ब्रह्मचर्य का ग्रहण किया गया है। श्री कौशाम्बी के अनुसार अपरिग्रह का समावेश तो देशकालोचित परिस्थितियों के अनुसार महावीर स्वामी ने किया है। यदि ऐसा न किया गया होता तो धर्म स्थिर नहीं रह सकता था। . मज्झिमनिकाय और महासीहनादसुत्त में बुद्ध ने स्वयं अपनी तपश्चर्या के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए वस्त्र रहित रहने, हाथों से
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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