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________________ प्रभु पार्श्व की कतिपय कलापूर्ण ऐतिहासिक प्रतिमायें - श्री कुन्दन लाल जैन* एक युग था जब जैन धर्म बौद्ध धर्म ही कहलाता था क्योंकि दोनों ही धर्मों में बहुत सी समानताएं थीं। पर बारीक विविधताओं और विषमताओं की ओर किसी का भी ध्यान नहीं गया। पर यूरोपीय विद्वानों की शोधों और खोजों एवं उत्खनन प्रक्रियाओं के द्वारा एवं भारतीय मूर्धन्य विद्वानों के गहन अध्ययन और गंभीर अध्ययनों एवं विश्लेषणों द्वारा दोनों की विभिन्नताओं का. गंभीर आलोडन आलोचन स्व प्रत्यालोचन जब हुआ तो जैन और बौद्ध धर्म की विभिन्नता का स्पष्ट रेखांकन हुआ। कुछ समय तक तो जैन धर्म को बौद्ध धर्म की शाखा मात्र मानते थे अभी भी कुछ • अल्पशिक्षित जन बौद्ध और जैन धर्म की स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं समझ पाये हैं। इसका मूल कारण हम जैन धर्म के अनुयायी जन अपने साहित्य के प्रकाशन और प्रसारण में बड़े पीछे रहे। कुछ रूढ़िवादियों की अज्ञता और अविवेक से जैन धर्म का विकास सही रूप से न करके पुराने गजरथ, पूजा, प्रतिष्ठादि विधि धर्म काण्डीय विधानों की रूढ़िबद्धता में द्रव्य का प्रदर्शन कर पुण्यं और स्वर्गादि वैभव को जुटाने में लग रहे। बौद्ध विद्वानों ने यूरोपीय विद्वानों की भांति अपने साहित्य की शोध खोज की और उसका प्रकाशन कर देश विदेशों में डटकर प्रसार किया। बौद्ध धर्म भारत से तो अपनी जड़ें खोखली कर ही चुका था पर चीन, लंका, तिब्बत, मलाया, जावा, समात्रा आदि छोटे बड़े देशों में वर्चस्व जमा चुका था। एशियाटिक बौद्धस्तर सोसायटियों का जन्म बौद्ध धर्म के विकास का प्रकृष्ट साधन बनी। जैनों की हीन भावना ने अपने साहित्य को दूसरों को स्थापित भी * दिल्ली
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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