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भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में
डॉ. अशोक जैन*,
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व अत्यंत विशाल एवं प्रभावक था। उनके सिद्धान्त सर्वथा व्यावहारिक थे। अपने उपदेशों में उन्होंने अहिंसा सत्य अस्तेय और अपरिग्रह पर अधिक बल दिया था। उन्होंने संपूर्ण भारत में अहिंसा का प्रचार-प्रसार किया । इतिहासकारों ने उनके धर्म के. संबंध में लिखा है कि इतने प्राचीन काल में अहिंसा को सुव्यवस्थित रूप देने की कला भगवान् पार्श्वनाथ में थी ।
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ऐसा कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध के जीवन पर तो भगवान् पार्श्वनाथ के चातुर्याम की ही गहरी छाप पड़ी । यह चातुर्याम थे १. सर्व प्राणातिपात विरति (सव्वाओ पाणाइवायओ वे रमणं), २. सर्व मृषावाद विरति (सव्वाओं मुसावायओ वे रमणं), ३. सर्व अदत्तादान'विरति (सव्वाओ अदत्ता दाणअ वे रमणं), ४. सर्व वहिरादान विरति (सव्वाओ वहिद्ददाणाओ वे रमणं) ये चार वृत थे (ठाणांग २०१ अ.) ।
तिलोयपण्णत्ती के अनुसार पार्श्वनाथ उग्रवंश के थे । उत्तरपुराणका उन्हें काश्यप गोत्री बताते हैं । जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने जिन चार वंशों की स्थापना की थी उनमें एक उग्रवंश भी था । काशी के महाराज अकंपन को यह वंश दिया गया था । मूलत: तो यह इक्ष्वाकु वंश ही था। ऋषभदेव स्वयं इक्ष्वाकुवंश के थे। ऐसा प्रतीत होता है कि चारो वंश इक्ष्वाकु वंश के ही भेद थे।
* उपाचार्य, वानस्पतिकी अध्ययनशाला, जीवाजी विश्वविद्यालय, ग्वालियर (म. प्र. )