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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ भगवान् को धरणेन्द्र के फणों के ऊपर बैठा हुआ अंकित किया और बाद में कहीं-कहीं उन्हें देवी पद्मावती के मस्तक पर विराजमान भी देखा गया। ऐसे परस्पर विरोधी अंकन किस आधार पर किस काल से प्रारम्भ हुए, यह स्पष्ट करने का प्रयास ही यहां हमारा अभीष्ट है । आगे हम उसी पर विचार करेंगे । I २९० उपसर्ग निवारण : कुछ पौराणिक संदर्भ पार्श्वनाथ भगवान् के मस्तक पर फणावली का प्राचीनतमं उल्लेख हमें स्वामी समंतभद्र के " वृहत् स्वयंभू स्तोत्र" में प्राप्त होता है। पार्श्वनाथ भगवान् की स्तुति करते हुए वे कहते हैं “उपसर्ग से युक्त पार्श्वनाथ भगवान् को धरणेन्द्र ने चमकती बिजली के समान पीली कान्ति वाले: फण - मण्डल से ऐसे वेष्ठित कर लिया था जैसे विविध रंगों वाली संध्या के समान बिजली से युक्त मेघ, पर्वत को वेष्ठित कर लेते हैं । " बृहुत्फणामण्डल-मण्डपेन यं स्फुरत्तडित्पिंग रुचोपसर्गिणम्, जुगूह नागो धरणो धराधरं विराग संध्या तडिदम्बुदो यथा । - पार्श्व स्तवन, वृहत्स्वयंभू स्तोत्र. कविवर द्यानतरायजी ने इस पद्य का अनुवाद करते हुए दो पंक्तियां लिखीं दैत्य कियौ उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयौ फनधार, गयो कमठ शठ मुख करि श्याम, नमौं मेरु सम पारस स्वाम । स्वयंभू स्तोत्र भाषा / २३ मध्यकाल में इस प्रसंग का प्रशस्त वर्णन गुणभद्राचार्य ने अपने उत्तर पुराण में इस प्रकार किया है। तं ज्ञात्वा अवधिबोधेन धरणीशो विनिर्गतः । धरण्याः स्फुरद्रत्न फणा - मण्डित मण्डिता ।। १३९ ।।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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