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________________ २८९ पाषाण प्रतिमाओं में रूपायित तीर्थंकर पार्श्वनाथ से अनेक दैत्यों ने भगवान् पर चारों ओर से तरह-तरह के उपसर्ग किये परन्तु आत्मलीन पार्श्व प्रभु अपनी साधना में मेरु की तरह अटल अकम्प बने रहे। उन्मत्त संबर ने कोपावेश में पर्वत जैसी एक पाषाण शिला उठाकर भगवान् के ऊपर पटक दी। तप के प्रभाव से वह चट्टान तो खण्ड-खण्ड होकर बिखर गई, परन्तु तपस्वी पर हुए इस क्रूर आक्रमण से धरणेन्द्र का आसन डोल उठा। भवनवासी देवों का अधिपति धरणेन्द्र अवधि ज्ञान से सारी घटना जानकर अपनी प्रिया देवी पद्मावती के साथ भगवान् के समीप आया। दोनों ने भक्ति पूर्वक भगवान् के चरणों में नमन किया फिर उस दैवी उपसर्ग के निवारण के लिये धरणेन्द्र ने अपना विशाल फण भगवान् के ऊपर वितान की तरह तान लिया। भगवान् के चरणानुराग में विह्वल और पति की सहायता के लिये उद्धत देवी पद्मावती अपना वज्रमय छत्र उस फणावली के भी ऊपर तानकर खड़ी हो गई। देव दम्पति के प्रभाव से तत्काल उपसर्ग का निवारण हुआ और कालसंवर देव भयभीत होकर भाग गया। उसी समय उपसर्ग-विजेता भगवान् पार्श्वनाथ को केवलज्ञान प्राप्त हो 'मंया। वे अंर्हत हो गये। . तीर्थकर. पार्श्वनाथ पर इस घोर उपसर्ग की स्मृति स्वरूप, प्रतिमा निर्माण के प्रारम्भ काल से ही पार्श्वप्रभु की प्रतिमाओं पर नागफण बनाने की परिपाटी बन गई। समय के साथ इस फणावलि में वैविध्य भी आता रहा। सर्व प्रथम भगवान् के मस्तक के ऊपर मात्र नागफण बनाये गये। कुछ समय पश्चात् उनकी पीठ के पीछे लहराता हुआ सम्पूर्ण नाग ही बनने लगा। फिर नाग को कुण्डली मार कर बैठा दिखाया गया और उसी सर्प-पीठ पर. भगवान् को विराजमान दिखाया जाने लगा। कहीं-कहीं फणावली के साथ स्वयं धरणेन्द्र को भगवान् के चरणों में विनत बैठा हुआ भी अंकित किया गया। कलाकारों को जहां विशाल पृष्ठभूमि मिली वहां उन्होंने कालसंवर के साथ अनेक दैत्यों का अंकन करके उपसर्ग की पूरी विकरालता को रूपायित किया। परन्तु कालान्तर में, सम्भवत: पंथ-व्यामोहं के कारण उपसर्ग की घटना के इस अंगन में कुछ अंतर आने लगा। पहले
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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