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माथुरी शिल्प में दुर्लभ पाांकन
___ - डा. शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी*
भारतीय शिल्प जगत में स्थान विशेष जहां पर अधिकांश कला कृतियां उपलब्ध हई हैं उसी के नाम उस कला को अभिहित करने की परम्परा पाते हैं। यथा भस्हूत (मध्य प्रदेश), अमरावती, (दक्षिण भारत), मगध (बिहार) एवं सारनाथ (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) की तरह मथुरा शैली का अपना विशिष्ट स्थान है। चूंकि मथुरा इस कला का केन्द्र रहा है, अत: भारतीय कला रसिकों ने इसे माथुरी-शिल्प की संज्ञा प्रदान की। .. कला तीर्थ मथुरा में ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन कला का वृहत संगम हुआ प्रतीत होता है। वहां की भूमि से निकली हुई कितनी ही कला कृतियां देश विदेश एवं व्यक्तिगत संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। आज भी इस क्षेत्र • से कला रत्न मिलते ही रहते हैं। .. जैन शासन के २३वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ अति लोक-प्रिय प्रतीत होते हैं तब ही तो इनकी प्रतिमायें सर्वाधिक यत्र-तत्र सर्वत्र उपलब्ध होती हैं। इन्हें प्रस्तर, धातु, कागज, काष्ठ, वस्त्र के साथ ही बहुमूल्य रत्नों पर भी रूपायित पाते हैं। भ. पार्श्वनाथ को आयागपट्ट, स्वतंत्र, त्रितीर्थी, सर्वतोभद्र, पंच-तीर्थी, चतुर्विशत्पट, मानस्तम्भ एवं अष्टोत्तरशत प्रतिमाओं के मध्य कायोत्सर्ग - खड़े अथवा पद्मासन में ध्यानलीन बैठे विराजित पाते
... इनकी प्रतिमा लेख रहित या लेख युक्त दोनों ही प्रकार की उपलब्ध हुई हैं। वाराणसी के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा की सन्तान पार्श्वनाथ ने तप की तुष्टि के अर्थ राजकीय विलास का जीवन त्याग दिया था।
* पूर्व निदेशक, राम कथा संग्रहालय, अयोध्या, लखनऊ