________________
२७१
तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियां : लक्षण और वैशिष्ट्य जिसके फण पार्श्वनाथ के मस्तक पर छाया कर रहे हैं। पद्मावती अन्य स्थलों की भांति छत्रधारिणी और सर्वालंकृत दिखायी गयी है। असुर के विकट उपसर्गों की स्थिति में भी पार्श्वनाथ का शान्त और अविचलित स्वरूप आध्यात्मिक और सात्विक शक्ति के विजय का जीवन्त रूपांकन बन गया
__ एलोरा की उपसर्गों का अंकन करने वाली पार्श्वनाथ की मूर्तियों में अष्टप्रातिहार्यों में से किसी प्रातिहार्य का न दिखाया जाना अर्थपूर्ण है। इनमें पीठिका पर शासन देवताओं के रूप में यक्ष और यक्षी की भी आकृतियां नहीं बनी हैं। नि:सन्देह एलोरा तथा पूर्व की बादामी एवं अयहोल की ये मूर्तियां पार्श्वनाथ की तपश्चर्या के अन्तिम चरण का शिल्पांकन हैं जिसके बाद ही पार्श्वनाथ कैवल्य प्राप्त कर तीर्थंकर हुए। अत: ये मूर्तियां पार्श्वनाथ के तीर्थंकर पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व की मूर्तियां हैं।
संदर्भ १.. पासनाहचरिउ, १४.२६. . 2. उत्तरपुराण, 73. 139-140. ३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, खं. ५, गायकवाड़ ओरियण्टल सिरीज
१३९, बड़ोदा, १९६२, पृ. ३९४-९६, पार्श्वनाथंचरित्र, ६. १९२-९३. ४. पउमचरिय, ३५.५६-५७, १०.४५-४६. ५. तिलोयपण्णत्ति, ४.६०४-६०५, प्रवचनसारोद्वार, ३८१-८२. ६. . 'एक: पंच नव च फणा:, सुपार्श्वे सप्तमे जिने।
बी.सी. भट्टाचार्य, दि जैन आइकनौग्राफी, लाहौर, १९३९, पृ. ६०
त्रिपंचफण : सुपार्श्व : पार्श्व : सप्तनदस्तवथा । वास्तुविद्या, २२.२७. ७. तीन उदाहरण राज्य संग्रहालय, लखनऊ (जे. ९६, जे. ११३,
जे. ११४) एवं दो अन्य क्रमश: भारत कला भवन, वाराणसी
(२०७४८) एवं पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा (बी. ६२) में हैं। ८. जे. ३९, जे. ६९, जे. ७५.