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तीर्थंकर पार्श्वनाथ
जिन्होंने तिलोयपण्णत्ती, तत्वार्थ वार्तिक जैसे ग्रन्थों का अध्ययन नहीं किया वे आगम से परिचित नहीं हो सकते। आर्यिका विशुद्धमती माता जी (तिलोयपण्णत्ती ग्रंथ की टीका लिखी) का वात्सल्य एवं ज्ञान महनीय है। श्री दि. जैन क्षेत्र कमेटी, तिजारा साधुवाद की पात्र हैं, जिसने उक्त कृति का पुनर्प्रकाशन कराया। जो धन संगमरमर के पत्थरों में न लगाकर जिनवाणी के प्रकाशन में लगता है वह धन्य हो जाता है।
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'न्यायाचार्य डॉ. महेन्द्र कुमार जैन स्मृति ग्रंथ' का आज यहां लोकार्पण किया गया। पुराने विद्वानों से समाज को परिचित कराने का यह शुभ प्रयास है। पू. उपाध्याय श्री ने ग्रंथ प्रकाशकों, सम्पादकों के योगदान की सराहना की। वास्तव में विद्वानों का सम्मान इनका नहीं बल्कि जिनवाणी की आराधना का सम्मान है।
उपाध्याय श्री ने कहा कि सम्यक्ज्ञान अमृत तुल्य है जो संसार के भटके लोगों, दु:खी लोगों को सुख का मार्ग बताता है। उन्होंने छहढाला की इन पंक्तियों का उद्धृत किया कि
ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण । इहि परमामृत जन्म जरा मृत रोग निवारन ॥
आज पुस्तकें अधिक छप रही हैं किन्तु उनमें शुद्धता का अभाव खलता है। अतः जो भी छपे शुद्ध छपनी चाहिए।
तृतीय सत्र दिः १९.१०.९७ (रात्रिकालीन सत्र )
परमपूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के मौन सानिध्य में आयोजित संगोष्ठी का तृतीय सत्र वयोवृद्ध मनीषी पं. उदयचन्द जैन (वाराणसी) की अध्यक्षता एवं डॉ. सुरेशचन्द जैन (वाराणसी) के संयोजन में सम्पन्न हुआ। डॉ. जयकुमार जैन (मु०नगर) द्वारा मंगलाचरण के उपरान्त आलेखवाचन क्रम में डॉ० सुरेन्द्र जैन 'भारती' (बुरहानपुर)