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तीर्थकर पार्श्वनाथ
- पुन: केशी श्रमण उत्तराध्ययन में गौतम गणधर से यह (२८-३२) पूछते बतलाए गये हैं कि, “वर्द्धमान स्वामी के धर्म में वस्त्र पहिनना मना है और पार्श्वनाथ के धर्म में आभ्यन्तर और बहिर वस्त्र धारण करना उचित है। दोनों ही धर्म एक उद्देश्य को लिये हुए हैं फिर यह अन्तर कैसा?" गौतम गणधर के इस उत्तर ने क्या केशी को समाधानित कर दिया होगा? "अपने उत्कृष्ट ज्ञान से विषय को निर्धारित करते हुए तीर्थंकरों ने जो उचित समझा सो नियत किया। धार्मिक पुरुषों के विविध बाह्य चिन्ह उनको वैसा समझने के लिये बताए गये हैं। लक्षणमय चिन्हों का उद्देश्य उनकी धार्मिक जीवन में उपयोगिता है और उनके स्वरूप को प्रकट करना है। अब तीर्थंकरों का कथन है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष के कारण हैं (न कि बाह्य चिन्ह)।"
वस्तुत: भारत में पार्श्वनाथ के युग में भी लिपि का अभाव होने से श्रुत ही रहा होगा जिससे ब्राह्मी लिपि (एवं सुन्दरी लिपि) के आविष्कार होने तक का ऐतिहासिक इतिवृत्त गम्भीर कोहरे से आच्छन्न है। हमने कर्म सिद्धान्त के गणितीय संदृष्टि पूर्ण विवरण से यह निष्कर्ष निकाला है कि इन दो लिपियों का आविष्कार आचार्य भद्रबाहु एवं दीक्षित सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा चतुर्थ शताब्दी ईस्वी पूर्व में श्रमणबेलगोल में किया गया होगा। (दखिये अर्हत् वचन में प्रकाशित विभिन्न लेख १(३), ७-१५, १९८९; ४.१, १९९२, १३-२०; ४.४, १९९२, १२-२१; ५.३, १९९३, १५५-१७१ आदि)।
यद्यपि बुद्ध ने जो प्रारंभ में कठोर तपस्वी जीवन बिताया था वह ४ तप रूप था : १. तपस्विता (नग्न रहना, हाथ में ही भिक्षा भोजन करना, केश दाढ़ी ___ के बालों को उखाड़ना, कंटकासीन स्थल पर शयन करना)। २. रुक्षता (शरीर पर मैल धारण करना या स्नान न करना) स्व एवं
पर द्वारा मैल को परिमार्जित न करना। ३. जुगुप्सा (जल की बूंद तक पर दया करना)। ४. प्रविविकृता (वनों में अकेले रहना)।