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________________ प्रथमानुयोग में तीर्थंकर पार्श्वनाथ २२९ २२ तीर्थंकरों का धर्म अपराध के होने पर ही प्रतिक्रमण का विधान करता है। कारण कि उनके समय में अपराध की बाहुल्यता नहीं होती। कारण कि २२ तीर्थंकरों के शिष्य विस्मरणशीलता रहित, दृढ़ बुद्धि, स्थिर चित्त और मूढ़ता रहित परीक्षा पूर्वक करने वाले होते हैं (वही ७-१२५-७-१२९) आदि और अंत के ऋजुजड़ और वक्रजड़ समझना चाहिये। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसा ही वर्णन उत्तराध्ययन सत्र में “केशी और गौतम" के सम्वाद रूप में मिलता है। (२२-२७) केशी ने गौतम से पूछा था कि क्या कारण है कि दोनों तीर्थंकरों के धर्म एक ही उद्देश्य के लिए है तब एक में चार व्रत और अन्य में पांच क्यों बतलाए गये हैं। केशी, पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में एक आचार्य हैं। यहां पांच महाव्रत रूप लिया है यद्यपि श्वेताम्बर मूलसूत्र में चातुर्याम शब्द की कुछ भी व्यवस्था नहीं की गई है। उपरान्त के श्वेताम्बर टीकाकार उसका भाव अहिंसा, अचौर्य, सत्य और अपरिग्रह व्रतरूप करते हैं जैसा ऊपर वर्णित किया गया है। इस शब्द का भाव मूल रूप में इसी रूप था, इस बात को प्रकट करने के लिए श्वेताम्बरों के पास कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बौद्ध शास्त्र में गिनाये गये चार प्रकार का धर्म समन्तभद्राचार्य के निम्न श्लोक से सामंजस्य रखता है। .. विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रह। ज्ञान ध्यान तपोरकृस्तपस्वी स प्रशस्यते ।।१०।। ___ अत: चातुर्याम का रूप समन्तभद्राचार्य ने “विषयों की आशा और आकांक्षा से रहित, निरारम्भ, अपरिग्रही, ज्ञानध्यानमय तपस्वी” रूप प्ररूपित किया है। वह बौद्धों के चार प्रकार के धर्म से मेल खाता है। अत: ब्रह्मचर्य की आवश्यकता पार्श्वनाथ के समय में भी थी, तदनुसार श्वेताम्बर सूत्र का अर्थ उपरोक्त दिगम्बरी होना चाहिए। हो सकता है कि उन्होंने बौद्ध शास्त्रों से लेकर अपने सूत्र का वह अर्थ ले लिया हो।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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