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प्रथमानुयोग में तीर्थंकर पार्श्वनाथ
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साधु, कमठ से बढ़कर कोई खल दिखलाई नहीं देता है (पार्वाभ्युदय काव्य १७)।
___ यथार्थत: पार्श्वनाथ का युग ईसा पूर्व नौवी शताब्दी ऐतिहासिक युग का प्रारम्भ माना जाने लगा है। शतपथ ब्राह्मण के कालतक वैदिक आर्य विदेह तक ही बढ़ सके थे। दक्षिण बिहार एवं बंगाल में ब्राह्मण धर्म का प्रसार ईस्वी सन् की तीसरी सदी के मध्य तक हो सका था। इस प्रकार पूर्वीय भारत में अपनी संस्कृति को फैलाने में वैदिक आर्यों को लगभग १००० वर्ष लगे। (Annals of the Bhandarkar Research Institute, Poona, Vol. 12, p. 113) । कोसल और विदेह के साथ काशी को प्राधान्य भी उत्तर वैदिक काल में मिला। अथर्ववेद में प्रथम बार काशी का निर्देश मिलता है। काशी के राजा धृतराष्ट्र को शतानीक सहस्राजित ने हराया था। वह अश्वमेध यज्ञ करना चाहता था किंतु शतानीक ने उसे हरा दिया। फलस्वरूप काशीवासियों ने यज्ञ करना ही छोड़ दिया (Political History of Ancient India, by Ray Chaudhary, p. 62)। काशी के भरतवंश का स्थान ब्रह्मदत्त वंश ने लिया था। संभवत: यहां से उग्र वंश का प्रारंभ हो। वृहदारण्यक उपनिषद (गीता प्रेस, गोरखपुर, ३-८-२) में गार्गी याज्ञवल्क्य से दो प्रश्न करने की अनुज्ञा लेते हुए कहती है। “यथा काश्यो वा वैदेहो वोग्रपुत्र उज्जयं धनुरधिज्यं कृत्वा द्वो बाण वन्तौ सपत्नाति व्याधिभौ हस्ते कृत्वो मोत्तिष्ठदेव-मेवाहं त्वा द्वाभ्यां प्रश्नाभ्यामुपोदस्थाम्” अर्थात् “याज्ञवल्क्य! जिस प्रकार काशी या विदेह का रहने वाला कोई उग्रपुत्र प्रत्यञ्चाहीन धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर शत्रु को अत्यन्त पीड़ा देने वाले दो फलवाले बाण हाथ में लेकर खड़ा होता है, उसी प्रकार मैं दो प्रश्न लेकर तुम्हारे सामने उपस्थित होती हूं।” .. दिगम्बर जैन साहित्य के अनुसार पार्श्वनाथ उग्रवंशी थे। जैन मान्यतानुसार ऋषभ देव ने वंशों की स्थापना की थी अत: उनके इक्ष्वाकुवंश की एक शाखा उग्र वंश होना प्रतीत होता है। सूत्र कृतांग में उग्रों, भोगों, ऐक्ष्वाकों और कौरवों को ज्ञातृवंशी और लिच्छवियों से सम्बद्ध बतलाया गया है (तिलोयपण्णत्ती, अ. ४, गाः ५५०)। गार्गी के उपरोक्त