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________________ प्रथमानुयोग में तीर्थंकर पार्श्वनाथ. - प्रोफेसर लक्ष्मीचन्द्र जैन एवं . ब्र. कुमारी मीना जैन आदिमध्यान्त गम्भीरा : सन्तोऽम्भोनिधि सन्निभाः। उदाहरणमेतेषां पार्यो गण्यः क्षमावताम् ।। . . उत्तर पुराण ७३.१६० ।। अर्थात् जो समुद्र के समान आदि, मध्य और अन्त में गम्भीर रहते हैं, ऐसे सज्जनों का यदि कोई उदाहरण हो सकता है तो क्षमावानों में गिनती करने के योग्य भगवान् पार्श्वनाथ ही हो सकते हैं। उत्तर पुराण के रचयिता आचार्य गुणभद्र ने संक्षेप में भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्व भवों का वर्णन त्रिसप्ततितमं पर्व में किया है। केवल एक ही जीव ने भव भवान्तरों के अकारण बैर और तीव्र क्रोधवश, दूसरे जीव को लगातार मृत्यु कष्ट दिया किन्तु इस दूसरे जीव ने क्षमाभावादि को असीम धैर्य से धारण कर निरन्तर विशुद्धि को बढ़ाते हुए लगातार पुण्य की वृद्धि से नाना प्रकार के उच्च पद प्राप्त कर तीर्थंकर पद को अंतत: प्राप्त किया। विशद्धि की महिमा वचनों से परे है। एक और संक्लेश और दुसरी ओर विशुद्धि! कमठ का जीव संक्लेश का प्रतीक और मरुभूति का जीव विशुद्धि का प्रतीक। ___ भगवान् पार्श्वनाथ की कथा संक्लेशरूपी महाविष और विशुद्धि रूपी अक्षय अमृत की अमर कहानी है। यह मात्र पौराणिक कथा नहीं वरन् तीर्थंकर पार्श्वनाथ को २३वें तीर्थंकर के रूप में देश विदेश के विद्वानों ने ऐतिहासिक महापुरुष के रूप में स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में दिगम्बर सम्प्रदाय में निम्नलिखित उल्लेखनीय सामग्री है : * जबलपुर
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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