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________________ २०६ तीर्थंकर पार्श्वनाथ पारसदास कवि प्रभु से अपने जैसा बना लेने की कामना करते हैं : तुम गरीब के निवाज, मैं गरीब तेरो। तुम समान की जै प्रभु, सुण जे दुख मेरो।५२ भक्त की कामना है कि शक्ति तुम्हारी तब लूं चावू जब लूं सिवपुर वासं न पाडूं।.. अंत समाधि मरण तुम सेवा द्यो निरविघ्न पार्श्व जिनदेवा ।५३ हे पार्श्व जिनदेव मैं आपकी भक्ति तब तक चाहता हूँ जब तक मुझे शिवपुर अर्थात् मोक्ष का वास प्राप्त न हो जाये। आपकी सेवा से मेरा अन्त निर्विघ्न समाधिमरणपूर्वक हो। भगवान् पार्श्वनाथ की भक्ति का फल . भक्त की भक्ति स्वार्थमय होती है जिसके पीछे उत्तम परिणाम की लालसा रहती है। जो चिंतामणि सदृश्य हैं ऐसे पार्श्वप्रभु की भक्ति से पाप नष्ट होते हैं। जो मनुष्य अष्ट द्रव्यों से, उत्तम मन-वचन-कर्म के साथ, आपकी पूजा करता है वह इन्द्र और चक्रवर्ती की संपदा प्राप्त करता है, मनुष्य योनि में जन्म ले श्रावक कुल में आता है। भव-भव में वह आपकी(पार्श्व की) भक्ति और सत्संगति पाता है। किसनचन्द कवि कहते हैं स्वामी पास प्रभु थाने पूज्या जी पालिग जाय।। अष्ट द्रव्य करि जे नर पूरें सुठ मन बच काय।। इन्द्र चक्र चक्री की संपति, तुम पूजै तै पाय। स्वामी।। तुम पूजन ते मानुष हो है, श्रावण कुल में आय, सत.संगति अरु भगति तिहारी भव भव में ये पाय।। स्वामी।। नवल कवि कहते हैं - दान सील तप भावना इत्यादिक उर लाइ। नवल प्रीति पारस तें करो त्यों उमरापुर जाइ।५५
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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