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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ भक्ति गंगा के आलोक में भगवान् पार्श्वनाथ २०३ हे प्राणी तू देश - देशान्तर में क्यों दौड़ता फिरता है, क्यों इन्द्र और नरेन्द्र को रिझाने की कोशिश करता है । तू क्यों देवी और देवताओं को मनाता है, क्यों चंन्द्र को सिर झुकाता है । तू क्यों सूर्य के हाथ जोड़ता है नमस्कार करता है क्यों मूर्ख मुनीन्द्रों के निहोरे करता हैं । तू दिन-रात चिन्ता क्यों करता रहता है । तू पार्श्व जिनेन्द्र की सेवा क्यों नहीं करता अर्थात् एक पार्श्व जिनेन्द्र की सेवा करने से तू सब चिन्ताओं से निर्मुक्त हो सकता है। कविवर जगजीवन जी कहते हैं कि : मनवचन मां भवियन श्री पारस चिनंद सुषकारी जी ।। जब प्रभु तेरो नाम ज़ु जान्यौ आनदेव सब टारो जी । ४२ - अर्थात् मन-वचन-कर्म से स्मरण करने वाले भव्य जीवों के पार्श्वजिन अत्यधिक सुखकारी है। हे प्रभु जब आपके नाम की महिमा विदित हुई तब हमने अन्य देवों की पूजा शक्ति त्याग दी । कुदेवों की पूजा मिथ्या मान्यता है जिसका खण्डन करते हुए कवि हीराचन्द पार्श्व प्रभु की पूजा - भक्ति को ही उचित मानते हैं यथा अन्यदेव में बहुतहिं सेये, सरयो एक न काज । जब मैं प्रभु तुम पद पिधायों, इन भव अवर न काज । ४३ 'जो प्रभु पार्श्व की भक्ति छोड़कर अन्य की सेवा करता है वह मान मणि को छोड़कर कांच को ही ग्रहण करता है । पारस को छांड़ि आंन को सेवत कांच ग्रहण मणि छोड़त ज्यों रे । ४४ अमर कवि कहते हैं कि हमने जितने भी देव, देवी और नरनाथ (राज़ा) देखें, सब जन्म-मरण के चक्कर में फंसे हुए हैं और आशा तथा सन्तोष की रीति में बंधे हैं। इसलिए मैं किसी और को नहीं मानता, जिसवर पार्श्व की शरण में आया हूं ।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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