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________________ १८४ तीर्थंकर पार्श्वनाथ आचार्य मातुंग कृत 'भक्तामर स्तोत्र' समाज में बहुप्रचलित स्तोत्र हैं। इसके बाद प्रसिद्धि की दृष्टि से जिस स्तोत्र का नाम आता है वह है - 'कुमुद चन्द्र' कुत कल्याणमंदिर स्तोत्र। इसके ४४ पद्यों में अन्तिम पद्य को छोड़कर शेष सभी पद्य वसन्ततिलका छन्द में हैं। कुमुदचंद्र का समय बारहवीं शताब्दी माना गया है। अन्य स्तोत्रों के अधिकांश पद्यों की रचना ऐसे शब्दों में होती है जिन्हें किसी भी तीर्थंकर की स्तुति में घटाया जा सकता है। पर कल्याण मंदिर में अधिकांश पद्य ऐसे हैं, जो ती. पार्श्वनाथ पर ही घटते हैं। दूसरे ही पद्य में कवि कहता है कि - . तीर्थेश्वरस्य कमठस्मण धूमकेतौः। तस्यामेव किल संस्तवन करिष्ये मैं उस तीर्थंकर की स्तुति कर रहा हूं जो कमठ के मान का मर्दन . करने वाले हैं। ____ कल्याणमंदिर की शैली समास रहित और प्रसाद गुण मण्डित है। आरम्भ में कवि अपनी विनय प्रकट करते हुए कहता है हे स्वामी! मेरे जैसे मनुष्य सामान्य रूप से भी आपके स्वरूप का वर्णन करने के लिए कैसे समर्थ हो सकते हैं? ढीठ भी उल्लू. का बच्चा. जो दिन में अन्धा रहता है, क्या सूर्य-रूपे-वर्णन में समर्थ हो सकता है। सामान्यतो ऽपि तव वर्णयितुं स्वरूप मस्मादृश। कथमधीश! भवन्त्यधीशा।। . धृष्टोऽपि कौशिक-शिशर्यदि वा दिवान्धो रूपं प्ररूपयति किं किल धर्म रश्मे ।। आराधना किसी की भी हो एकाग्रता के बिना कभी सफल नहीं होती। इस कथन के आलोक में कवि का कहना है कि हे जनबन्धु! मैं आज तक मोक्ष लक्ष्मी का भर्ता नहीं बना हं इसका कारण यही है कि आपका नाम सुनने पर भी, आपकी पूजा करने परी भी और आपको देखने पर भी मैंने भक्तिपूर्वक आपको धारण नहीं किया। क्रिया के फलदायक म होने में भाव हीनता ही मुख्य कारण है -
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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