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________________ १७० तीर्थंकर पार्श्वनाथ ज्ञात होता है कि इनके पूर्व भवों का जीवन बहुत ही संघर्षमय रहा है। किन्तु भगवान् पार्श्वनाथ की सहनशीलता और इनके जन्म-जन्मान्तर के बैरी कमठ के जीव द्वारा छाया की तरह इनका प्रतिपल विरोध - दोनों ही आश्चर्यकारी हैं। कमठ का जीव बदले की भावना से निरन्तर उपसर्ग करता है और भगवान् पार्श्वनाथ का जीव अपने पूर्वकृत कर्मों को उदय में आया जानकर उन उपसर्गों की शान्तिपूर्वक सहता है। पूर्वकृत अच्छे या बुरे कर्मों की फल व्यवस्था का भगवान् पार्श्वनाथ के पूर्व भवों में और तीर्थकर पर्याय में भी जैसा परिपाक हुआ है वह अत्यन्त विरल है। इस कथानक से जैनदर्शन के कर्म-सिद्धांत की समन्तात् पुष्टि होती है। अहिंसा और हिंसा का संघर्ष . इस कथानक में एक साथ एक ओरं अहिंसा और दूसरी ओर हिंसा, . एक ओर क्षमा और दूसरी ओर क्रोध, एक ओर भावों की सरलता और दूसरी ओर भावों की कुटिलता, एक ओर शान्ति का लहराता हुआ सिन्धु और दूसरी ओर ज्वार-भाटा से संतप्त समुद्र का विकराल रूप आदि ऐसे कार्य हैं, जो नदी के दो तटों की भांति एक दूसरे से सर्वथा प्रतिकूल हैं। मरुभूति का जीव अहिंसा आदि संस्कृतियों का प्रतीक है और कमठ का जीव हिंसा का नग्न ताण्डव करता हुआ राक्षसी संस्कृति का मूर्तिमान् पिण्ड है। श्रमण और वैदिक संस्कृति यह वह संघर्षपूर्ण काल था जब एक ओर वैदिक संस्कृति के पुरोधा यज्ञ-यागादि में धर्म के नाम पर पशुओं की बलि का न केवल समर्थन करते थे, अपितु निरीह पशुओं की बलि चढ़ा कर स्वर्ग के दरवाजे खोलना चाहते थे और दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के उन्नायक महापुरुष सर्वस्व त्यागकर प्राणिमात्र की रक्षा के लिये कृतसंकल्प थे। वस्तुतः कमठ का जीव और भगवान् पार्श्वनाथ का जीव उपर्युक्त वैदिक और श्रमण - इन दोनों संस्कृतियों के तत्कालीन संघर्ष के प्रतीक हैं, जिन्हें भट्टारक सकलकीर्ति ने 'पार्श्वनाथ-चरितम्' में वर्णित भगवान् पार्श्वनाथ और कमठ के जीव
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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