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भट्टारक सकलकीर्ति और उनका पार्श्वनाथचरितम्
- डॉ. कमलेशकुमार जैन*
पार्श्वो विघ्नविनाशको वृषजुषा पार्श्वश्रिता धार्मिकाः, पार्श्वेणाशु विलभ्यते ऽखिलसुखं पार्श्वय तस्मै नमः । 'पार्वान्नास्त्यपरो हितार्थजनकः पार्श्वस्य मुक्तिः प्रिया, पार्श्वे चित्तमहं दधे जिनप मां शीघ्रं स्वपार्श्वे नय ।।
भगवान महावीर स्वामी की परम्परा में दीक्षित दिगम्बर जैन मुनियों की कठोर साधना का सम्यक् निर्वाह न कर पाने तथा कालदोष के कारण भट्टारक-परम्परा का जन्म हुआ ।
भट्टारक- परम्परा
यह भट्टारक-परम्परा दिगम्बर मुनियों की तुलना में अपनी आचारगत शिथिलता के कारण अपने उत्पत्ति काल में बहुप्रतिष्ठित न हो सकी, किन्तु परवर्ती काल में इसके द्वारा की गई जैनधर्म एवं जैन संस्कृति की प्रभावना तथा प्राचीन जैन साहित्य की सुरक्षा और नवीन तथा लोक कल्याणकारी साहित्य की संरचना के कारण अत्यधिक समादृत हुई है।
भट्टारक सकलकीर्ति
भट्टारक-परम्परा में भट्टारक सकलकीर्ति का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। इनका वैदुष्य एवं लोक प्रभाव इनकी साहित्य-सेवा से स्वत: प्रमाणित है। भट्टारक सकलकीर्ति वि. सं. १४४४ में ईडर की
* प्राध्यापक, जैनदर्शन, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी