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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा नाग जाति ११५ इस काल में वैदिक आर्यों की शुद्ध सन्तति अवशिष्ट ही नहीं रह गयी थी। रक्त मिश्रण, सांस्कृतिक आदान-प्रदान एवं बहुधा धर्म परिवर्तन आदि के कारण एक नवीन भारतीय जाति उदय में आ रही थी जिसमें श्रमणोपासक चातुर्वर्ण के व्रात्य एवं नाग आदि जातियों का बाहुल्य था उत्तर वैदिक काल में श्रमण धर्म पुनरुत्थान के सर्व प्रथम परस्कर्ता बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ या अरिष्टनेमि थे। इनके पश्चात् नाग-पुनरुत्थान का युग आया। भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म उरग वंश में हुआ था जो कि नाग जाति की ही एक शाखा थी। अत: उस काल में पुन: जागृत नाग लोगों में उनके धर्म का प्रचार अत्यधिक रहा। भगवान् महावी से पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ का धर्म प्रचलित था। स्वयं भगवान् महावीर के माता-पिता इनके अनुयायी थे। - असुरों तथा नागों की सभ्यता भारत वर्ष में उनके पुनरुत्थान के काफी पहले से ही बहुत विकसित थी। उन्होंने आज से लगभग चौदह हजार वर्ष पूर्व आकाश में नगरों का निर्माण कर लिया था, जैसा कि आज के युग में वैज्ञानिक अंतरिक्ष में लघु उपग्रह स्थापित करते हैं। लेकिन असुरों के द्वारा स्थापित आकाशिय नगरं बड़े थे। देवासुर संग्राम में वे नष्ट हो गये। . इस प्रकार हम देखते हैं कि तीर्थकर पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक पुरुष थे, इनकी ऐतिहासिकता पर संदेह करना अनुचित है। जिस नाग जाति में इनका जन्म हुआ वह भारत की एक विशिष्ट जाति रही है। इस जाति के कतिपय अवशेष कुछ उन आदिवासियों में पाये जाते हैं जो कि सर्प की पूजा करते हैं या सर्प को अपना देवता मानते हैं। असम की एक जाति के लोग अपना उपनाम चेतिया' लगाते हैं। इससे यह आभास होता है कि ये उन व्रात्यों से सम्बन्धित रहे हैं जो चेतियों या चैत्यों (जैन मन्दिरों) की पूजा करते थे तथा नाग जाति के समकालीन थे। पूर्वी राज्य 'नागालैण्ड' की नागा जाति तथा प्राचीन नाग जाति के नामों में भी अद्भुत साम्य है। ' 'पद्मावती पुरवाल' एक जैन जाति है। इसका उद्गम स्थान पद्मावती : नगर (नरवर) रहा है जो कि उत्तरवर्ती नाग जातिय राजवंशों की
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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