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________________ तीर्थंकर पार्श्वनाथ मानव-मानव के बीच होने वाले विवाद का अंत होना संभव नहीं था । तब बोधिसत्व ‘उद्रकराम पुत्र’ का आश्रम छोड़कर राजगृह चले गये। वहां के श्रमण समुदाय में उन्हें शायद निर्ग्रन्थों का चातुर्याम संवर ही विशेष पसन्द आया क्योंकि आगे चलकर उन्होंने जिस आर्य अष्टांगिक मार्ग का आविष्कार किया, उसमें चातुर्याम का समावेश किया गया है। १०४ जैन श्वेताम्बर आगमों में अन्यान्य तीर्थंकरों का 'अरहा' विशेषण से ही उल्लेख किया गया है जैसे 'उसभेणं अरहा' 'सीयलेणं अरहा' 'संतिस्सणं अरहओ' आदि। परन्तु पार्श्वनाथ का परिचय देते समय आगमों में लिखा है ‘पासेणं अरहा पुरिसादाणीए' 'पासस्सणं अरहओ पुरिसादाणिअस्स' ।” उससे प्रमाणित होता है कि आगमकाल में भी पार्श्वनाथ की कोई खास विशिष्टता मानी जाती थी । अन्यथा उनके नाम से पहले विशेषण के रूप में ‘अरहा अरिट्ठनेमी' की तरह 'पासेणं अरहा' केवल इतना ही लिखा जाता । 'पुरिसादानीय' का अर्थ होता है पुरुषों में आदरपूर्वक नाम लेने योग्यं । महावीर के विशिष्ट तप के कारण जैसे उनके नाम के साथ 'समणें भगवं महावीर' लिखा जाता है वैसे ही पार्श्वनाथ के नाम के साथ अंग शास्त्रों में 'पुरिसदाणी' विशेषण दिया गया है । अत: यह विशेषंण उनकी विशिष्ट प्रभावकता का निदश करता है 1 पार्श्वनाथ की वाणी का ऐसा प्रभाव था कि उससे बड़े-बड़े राजा महाराजा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । व्रात्य क्षत्रिय सब जैन धर्म के ही उपासक थे। पार्श्वनाथ के समय में कई ऐसे राज्य थे जिनके पार्श्वनाथ ही इष्टदेव माने जाते थे । डॉ. ज्योति प्रसाद के अनुसार उनके समय में पूर्व पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में प्रबल नाग सत्तायें राजतन्त्रों अथवा गणतन्त्रों के रूप में उदित हो चुकी थी और उन लोगों के इष्टदेव पार्श्वनाथ ही रहे प्रतीत होते हैं। इसके अतिरिक्त मध्य एवं पूर्वी देशों में अधिकांश व्रात्य क्षत्रिय भी पार्श्व के उपासक थे। लिच्छिवि आदि आठ कुलों में
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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