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तीर्थंकर पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव
डॉ. अशोक कुमार जैन*
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भारतीय जीवन, साहित्य एवं दर्शन के क्षेत्र में भगवान् पार्श्वनाथ का प्रभाव अप्रतिम है। पार्श्व-महावीर - बुद्ध युग श्रमण संस्कृति का पुनरुत्थान युग माना जाता है। इस युग में जैन संस्कृति की व्यापक प्रभावना विद्यमान थी। इस युग का आरंभ १९०० ई. पू. से माना जाता सकता है। पार्श्वनाथ का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अतिशय प्रभावक था । उनका काल प्राचीन भारतीय श्रमण संस्कृति का पुनर्जागरण काल या उपनिषदकाल का आरंभ भी माना जाता है जिसका श्रमण एवं ब्राह्मण दोनों संस्कृतियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। डॉ. हर्मन जैकोबी जैसे लब्ध प्रतिष्ठ पश्चिमी विद्वान भी भगवान् पार्श्वनाथ को ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। उन्होंने जैनागमों के साथ ही बौद्ध पिटकों के प्रकाश में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ika, frgkfid of fir Bisi तिलोयपण्णती में भगवान् नेमिनाथ के जन्मकाल से ८४ हजार छह सौ पचास वर्ष बीतने पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। उनका जन्म काशी जनपद के वाराणसी नगर में वहां के राजा विश्वसेन की महारानी वामादेवी के गर्भ से पौष कृष्ण एकादशी को हुआ था। डा. हर्मन जैकोबी ने पार्श्वनाथ के धर्म के सम्बन्ध में लिखा है, “श्री. पार्श्वनाथ भगवान् का धर्म सर्व था, व्यवहार्य था। हिंसा, असत्य, स्तेय और परिग्रह का त्याग करना यह चातुर्याम संवरवाद उनका धर्म था । " इसका उन्होंने भारत भर में प्रचार किया । इतने प्राचीन काल में अहिंसा को इतना सुव्यवस्थित रूप देने का यह सर्वप्रथम उदाहरण है। ईसवी सन् से आठ शताब्दी पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम का जो उपदेश दिया था वह काल अत्यन्त प्राचीन है और वह उपनिषद काल बल्कि उससे भी प्राचीन ठहरता है ।
* जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ - नागोर (राज.)