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भ. पार्श्वनाथ उपदिष्ट चातुर्याम धर्म
डॉ. (श्रीमति) जैनमती जैन*
ईसा पूर्व नवमी शताब्दी में एक ऐसे महापुरुष का जन्म हुआ जो. जैन धर्म के २३ वें तीर्थंकर के रूप में जाने जाते हैं । तीर्थंकर संसार सागर से पार करने वाले धर्म का उपदेश देकर जीवों का कल्याण किया करते हैं । जिस समय भ. पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था उस समय धार्मिक वातावरण विषम था। तत्कालीन चिंतन की दो विपरीत धारायें प्रवाहित हो रही थीं । दूसरे शब्दों में तत्व-चिंतक अपने-अपने मतानुसार तत्वों की व्याख्या कर रहे थे। एक ओर ऐसे लोगों की जमात थी जो स्वर्ग के सुखों का प्राप्त करना ही अपने जीवन का लक्ष्य मानती थी। फलतः देश में यज्ञों की • अपने विश्वासानुसार असंख्य पशुओं का यज्ञों में होम किया करते थे। दूसरी ओर एक स्वतन्त्र चिन्तन भी चल रहा था। उन्होंने अपने आचार-विचारों का गम्भीर मनन और निनिध्यासन करने हेतु वन को अपना निवास बना लिया था। वहां वे मौन पूर्वक तत्वों का मनन निर्बाध रूप से किया करते थे । यही कारण है कि वे मुनि कहलाते थे । ऋग्वेद में इन्हीं को वातरशना कहा गया है। तप करना, दान, आर्जव, अहिंसा और सत्य इनके जीवन के परम मूल्य थे। इनकी साधना का लक्ष्य मोक्ष या शाश्वत सुख प्राप्त करना था । इस साध्य की सिद्धि में यज्ञ आदि निरर्थक या अनुपयोगी थे ।
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ऐसी विषम धार्मिक स्थिति देखकर भगवान् पार्श्वनाथ ने पशुयज्ञों का विरोध किया और बतलाया कि इन यज्ञों से सांसारिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है । परम सुख की प्राप्ति के लिए इनके द्वारा दिया गया उपदेश चातुर्याम (चाउज्जाम धम्म) के नाम से प्रसिद्ध है। 'चातुर्याम'
* श्री जैन बाला विश्राम, धरहरा (भोजपुर) बिहार