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________________ जैन एवं जैनेतर साहित्य में पार्श्वनाथ श्री सत्येन्द्र कुमार जैन* मानव भेदों की जितनी विविधता और विभिन्न जातियों का जितना सम्मिश्रण भारतवर्ष में रहा है, उतना अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं है। स्थूल रूप से दो मानवी धाराएं प्रचलित रही हैं। पहली ऋक्ष, यक्ष, नांग आदि के वंशजों की वह धारा, जिसे वर्तमान में प्राय: द्राविड़ नाम से जाना जाता है। दूसरी उत्तर-पश्चिम की ओर से उदय में आने वाली आर्य जाति के वंशजों की वह धारा जो इण्डो आर्य कहलाती है। इसके अतिरिक्त ईरानी, यूनानी, शक, पल्लव, कुषाण, हूण, अरब, तुर्क आदि जातिय तत्व भी समय-समय पर भारतीय जनता में मिश्रित होते रहे हैं। भाषा की दृष्टि से भारतीय आर्य, द्राविड़, मानख्मेर ये तीन तत्व. भारतीय भाषाओं के मूलाधार हैं। जैन धर्म अत्यधिक प्राचीन एवं प्रागैतिहासिक माना जाता है। यही वह धर्म है, जिसने कर्मवादी मानवी सभ्यता का भूतल पर सर्वप्रथम"ॐ नमः" का जाप किया। अयोध्या से हस्तिनापुर प्रदेश तक इस नवीन सभ्यता का केन्द्र था। ऋषभदेव ने तत्कालीन समाज को असि, मसि, कृषि, शिल्प, व्यापार, वाणिज्य, इन छ: कलाओं की शिक्षा देकर असभ्य युग का अंत किया एवं अहिंसावादी धर्म का आरंभ किया, जो सरल, आत्मकर्म, मुक्ति और सुख का मार्ग कहलाया था। उक्त तथ्य का ऋग्वेद उपरान्त मजुष, साम और अथर्व नामक शेष तीन वेदों में ब्राह्मण संस्कृति का "मुनियोवात वसना" के रूप में तत्कालीन दिगम्बर मुनियों का स्पष्ट उल्लेख है। इस धर्म के तेइसवें तीर्थंकर के रूप में भगवान् पार्श्वनाथ को जाना जाता है। इनका जन्म बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के ८४,६५० वर्ष पश्चात् * आचार्य विद्यासागर शोध संस्थान, जबलपर
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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