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________________ ७० तीर्थंकर पार्श्वनाथ ' है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लिया है और दुर्नय का अन्त कर दिया है। __इस प्रकार ऋषभदेव और शिव को एक ही होना चाहिए। वैदिक परम्परा जहां शिव को त्रिशूलधारी मानती है वहीं जैन परम्परा में अर्हन्त की मूर्तियों को रत्नत्राय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) के प्रतीकात्मक त्रिशूलांकित त्रिशूल से सम्पन्न माना जाता है। सिंधुघाटी. से प्राप्त मुद्राओं पर भी ऐसे योगियों की मूर्तियां अंकित हैं जो दिगम्बर हैं। जिनके सिर पर त्रिशूल है और कायोत्सर्ग (खड़गासन) मुद्रा में ध्यानावस्थित हैं। कुछ मूर्तियां ऋषभ चिन्ह से भी अंकित हैं। मूर्तियों के रूप महान योगी ऋषभदेव से संबंधित माने जाते हैं। जैन परम्परा तथा उपनिषद् में भी भगवान ऋषभदेव को आदि-ब्रह्मा कहा गया है। भगवान ऋषभदेव तथा शिव दोनों का जटाजूट युक्त रूप चित्रण भी उनके ऐक्य का समर्थक है। इस प्रकार श्रमण परम्परा के आदि प्रवर्तक आदिनाथ के समय से ही काशी में जैन परम्परा विद्यमान रही है। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ', आठवें चन्द्रप्रभ ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ तथा तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान कल्याणकों की पृष्ठभूमि के रूप में काशी आज भी समस्त जैन धर्मानुयायियों के लिए श्रद्धा का केन्द्र है। इतिहासज्ञों ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित की है और यह तत्व स्वीकार किया है कि जैन धर्म की अवस्थिति बौद्ध धर्म से भी पूर्व की है। काशी के सन्दर्भ में तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ एवं चन्द्रप्रभ के सन्दर्भ में परम्परागत उल्लेख ही मिलते हैं। इस दृष्टि से जैन श्रमणं परम्परा के अतिप्राचीन उत्स की उपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि “वातरशना"१२ “व्रात्य"१३ आदि के रूप में वेदों में उल्लेख आया है। अत: श्रमण-परम्परा का आदि एवं मूल स्रोत यदि ऋषभदेव हैं तो उनके परवर्ती तीर्थंकरों की स्थिति भी स्वीकार्य हो जाती है क्योंकि सिंधुघाटी से प्राप्त अवशेषों से यह प्रमाणित हो चुका है कि प्राचीन काल में भी श्रमण-परम्परा के अनुयायी थे।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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