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________________ ६९ काशी की श्रमण परम्परा और तीर्थंकर पार्श्वनाथ ही है और इसके निश्चय के हेतु उस मन्दिर के आसपास के जैन खण्ड प्रमाण हैं"। उक्त कतिपय उल्लेख इस बात को स्पष्ट करते हैं कि श्रमण जैन परम्परा के बीज प्रारम्भ से ही काशी में पल्लवित हुए हैं। शिव के विषय में भी जैन परम्परा और वैदिक परम्परा की दृष्टि से पर्यालोचन की आवश्यकता है। वैदिक परम्परा शिव को काशी का अधिष्ठातृ देव मानती है। शिव को रामायण में महादेव, महेश्वर, शंकर तथा त्रयम्बक के रूप में स्मरण किया गया है तथा उन्हें सर्वोत्कृष्ट देव कहा गया है। महाभारत में शिव को परमब्रह्म, असीम, अचिन्त्य, विश्वसृष्टा, महाभूतों का एकमात्र उद्गम, नित्य और अव्यक्त आदि कहा गया है। अश्वघोष के बुद्ध चरित्रा में शिव का वृषध्वज तथा भव के रूप में उल्लेख हुआ है। विमलसूरि के "पउमचरिउ" के मंगलाचरण के प्रसंग में एक “जिनेन्द्र रूद्राष्टक" का उल्लेख आया है, जिसमें जिनेन्द्र भगवान का रूद्र के रूप में स्तवन है। पापान्धक निर्भशं मकर ध्वजलोभमोहपुर दहनम्। तपोभरं भूषितांगं जिनेन्द्र रूद्रं सदा वन्दे ।। - · संयम वृषभारूढ़ तपउग्रमह तीक्ष्ण शूलाधरम् । संसार.करिविदारं जिनेन्द्र रूद्रं सदा वन्दे ।। : अर्थात् जिनेन्द्र-रूद्र पापरूपी अन्धासुर के विनाशक हैं। काम, लोभ — एवं मोह रूपी विदुर के दाहक हैं, उनका शरीर तम रूपी भस्म से विभूषित है, संयम रूपी वृषभ पर आरूढ़ हैं, संसार रूपी करि (हाथी) को विदीर्ण करने वाले हैं। ऐसे जिनेन्द्र रूद्र को नमस्कार करता हूं। शिवपुराण में शिव का आदितीर्थंकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने . का उल्लेख आता है। आचार्य वीरसिंह स्वामी ने भी धवला टीका में अर्हन्तों का पौराणिक शिव के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि अर्हन्त परमेष्ठी वे हैं जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्रा रूपी त्रिशूल को धारण करके मोहरूपी अन्धकासुर के कबन्ध-वृन्द का हरण कर लिया :: तो
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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