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________________ पार्श्व परम्परा के उत्तरवर्ती साधु और उनका स्वरूप के पूर्वगामी उन्हीं की मान्यता वाले अनेक तीर्थंकरों में उनका विश्वास है और इनमें से अन्तिम पार्श्व या पार्श्वनाथ के प्रति वे विशेष श्रद्धा व्यक्त करते हैं। उनकी यह मान्यता ठीक भी है; क्योंकि अन्तिम व्यक्ति पौराणिक से अधिक हैं। वह वस्तुत: जैनधर्म के राजवंशी संस्थापक थे, जब कि उनके अनुयायी महावीर कई पीढ़ियों से उनसे छोटे थे और उन्हें मात्र सुधारक माना जा सकता है। गौतम (बुद्ध) के समय में ही पार्श्व द्वारा स्थापित निग्गंठ (निर्ग्रन्थ) नामसे प्रसिद्ध धार्मिक संघ एक पूर्व संस्थापित सम्प्रदाय था और बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार उसने बौद्धधर्म के उत्थान में अनेक बाधायें डालीं२७ । ऐसा लगता है कि भगवान महावीर के समय तक पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी शिथिल आचरण करने लगे थे, अत: पासत्थ कहकर उनकी निन्दा की गयी है। इसी शिथिलाचार के कारण भगवान महावीर को स्वतन्त्र रूप से अपने संघ का गठन करना पड़ा और सैकड़ों, हजारों की संख्या में उसमें पापित्यीय भी सम्मिलित हो गए। हो सकता है कुछ लोग न भी सम्मिलित हुए हों, किन्तु उन्हें किसी न किसी सम्प्रदाय का सहारा अवश्य लेना पड़ा होगा, क्योंकि भगवान, महावीर के अभ्युदय के बाद पासत्थों का उत्कर्ष नहीं रहा और महावीर के अनुयायियों द्वारा वे शिथिलाचारी के रूप में ही गिने गए। इतना होते हुए भी भगवान महावीर की परम्परा में भगवान पार्श्वनाथ का वही पूजनीय स्थान रहा जो पहले से चला आता था। श्वेताम्बर साहित्य में महावीर द्वारा पार्श्वनाथ 'पुरुषादानीय' विशेषण उनके प्रति विशेष आदर भाव को द्योतित करता है। संदर्भ १. पासत्थादीपणयं णिच्चं वज्जेह सव्वधा तुम्हे। हंदि हु मेलणदोसेण होई पुरिसस्स तम्मयदा ।। भगवती आराधना - ३४१. अयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेणरन स सर्वथा पार्श्वस्थः ।। भगवती आराधना गाथा १९४४ की विजयोदया. ३. भगवती आराधना गाथा ४२३ की बिजयोदया.
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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