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पार्श्व परम्परा के उत्तरवर्ती साधु और उनका स्वरूप
लिङ्ग पाहुड में कहा है कि जो लिंग धारण कर स्त्री समूह में उनका विश्वास कर तथा उन्हें विश्वास उत्पन्न कराकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र को देता है, उनकी सम्यक्त्व बतलाता है, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है। इस प्रकार विश्वास उपजाकर उनमें प्रवृत्ति करता है, वह व्यक्ति पार्श्वस्थ से भी अधिक निकृष्ट है।" । वह श्रमण नहीं है।
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एते पञ्च
चारित्रसार में पार्श्वस्थादिको जिनधर्म बाहय कहा है श्रमणाः जिनधर्म बाह्या: ।.
पार्श्वस्थादि पाँचों मुनि सुखस्वभावी होते हैं, सम्यग्दर्शनादि गुणों के प्रति निरुत्साही हो जाते हैं । नीति, वैद्यक, सामुद्रिक आदि पाप शास्त्रों का आदर करते हैं। इष्ट विषयों की आशा से बँधे हुए हैं। तीन गांख से सदा युक्त और पन्द्रह प्रमादों से पूर्ण है । समिति, गुप्ति की भावनाओं से दूर रहते हैं। संयम के भेद रूप जो उत्तरगुण तथा शील वगैरह हैं, इनसे भी दूर रहते हैं। दूसरों के कार्यों की चिन्ता में लगे रहते हैं । आत्मकल्याण के कार्यों से कोसों दूर हैं, इसलिए इनमें रत्नत्रय की शुद्धि नहीं रहती। परिग्रह में सदा तृष्णा, अधिक मोह व अज्ञान, गृहस्थों के समान आरम्भ करना, शब्द, रस, गन्ध, रूप और स्पर्श इन विषयों में आसक्ति, परलोक के विषय में निस्पृह, एहिक कार्यों में सदा तत्परं, स्वाध्याय आदि कार्यों में मन न लगना, संक्लेश परिणाम, मूल व उत्तर गुणों में सदा अतिचार युक्तता, चारित्रमोह का क्षयोपशम न होना, ये सब अवसन्नादि के दोष हैं, जिन्हें नहीं हटाते हुए वे अपना आयुष्य व्यतीत कर देते हैं, जिससे कि इन मायावी मुनियों को . देवदुर्गति अर्थात् नीच देवयोनि की प्राप्ति होती है।" ।
संसार भययुक्त मुनि भी इन पार्श्वस्थादि का सहवास करने से पहले तो प्रीतियुक्त हो जाता है और तदनन्तर उनके विषय में मन में विश्वास होता है, अनन्तर उनमें चित्त विश्रान्ति पाता है अर्थात् आसक्त होता है और तदन्नतर पार्श्वस्थादिमय बन जाता है १७ ।
उपर्युक्त सन्दर्भों के अतिरिक्त श्वेताम्बर आगम साहित्य में पार्श्वनाथ के अनुयायियों के लिए पासावच्चिज्ज (पार्श्वपत्यीय ) और पासत्थ (पार्श्वस्थ )