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________________ आचार्य शान्तिसागर (छाणी) और उनकी परम्परा बीसवीं शती में दिगम्बर जैन मुनि परम्परा कुछ अवरूद्ध-सी हो गई थी, विशेषतः उत्तरभारत में। शास्त्रों में मुनि-महाराजों के जिस स्वरूप का अध्ययन करते थे, उसका दर्शन असम्भव-सा था। इस असम्भव को दो महान् आचार्यों ने सम्भव बनाया, दोनों सूर्यों का उदय लगभग समकालिक हुआ, जिनकी परम्परा से आज हम मुनिराजों के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करते हैं और अपने मनुष्यजन्म को धन्य मानते हैं। - प्रशान्तमूर्ति आचार्य शान्तिसागर जी का जन्म कार्तिक बदी ग्यारस स. 1945 छाणी, जिला उदयपुर (राज.) में हुआ था, पर सम्पूर्ण भारत में परिभ्रमण कर भव्य जीवों को उपदेश देते हुए सम्पूर्ण भारतवर्ष, विशेषतः उत्तरभारत को उन्होंने अपना भ्रमण क्षेत्र बनाया। उनका बचपन का नाम केवलदास था, जिसे उन्होंने वास्तव में अन्वयार्थक : (केवल-अद्वितीय, अनोखा, अकेला) बना दिया। सन् 1922 में क्षुल्लकदीक्षा ली तथा । वर्ष बाद भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी सन् 1923 को दीक्षा लेकर आचार्य महाराज ने अनेकत्र विहार किया। वे प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने समाज में फैली करीतियों को दूर करने में कोई कसर नहीं उठा रखी थी। मृत्यु के बाद छाती पीटने की प्रथा, दहेज प्रथा, बलिप्रथा आदि का उन्होंने डटकर विरोध किया। "छाणी" के जमींदार ने तो उनके अहिंसा-व्याख्यान से प्रभावित होकर अपने राज्य में सदैव के लिए हिंसा का निषेध करा दिया था और अहिंसा धर्म अंगीकार कर लिया था। ... आचार्यश्री पर घोर उपसर्ग हुए, जिन्हें उन्होंने समताभाव से सहा। उन्होंने 'मूलाराधना', 'आगमदर्पण', 'शान्तिशतक', 'शान्तिसुधासागर' आदि ग्रन्थों का संकलन/प्रणयन किया, जिन्हें समाज ने प्रकाशित कराया, जिससे आज हमारी श्रुतपरम्परा सुरक्षित और वृद्धिंगत है।
SR No.002274
Book TitleTirthankar Parshwanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Jain, Jaykumar Jain, Sureshchandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharti
Publication Year1999
Total Pages418
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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