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________________ (२६) असंख्येयान् द्वीप वार्डीनतीत्य परतः स्थिते । योजनानां सहस्राणि, वगाह्य द्वादश स्थिताः ॥१४०॥ असंख्य द्वीप और समुद्र पार करने के बाद रहे लवण समुद्र में बारह हजार योजन दूर यह राजधानियां रही है । (१४०) जम्बूद्वीप वेदिकान्तादष्टापि स्वस्वदिक्ष्वमी । द्विचत्वारिंशत्सहस्र योजनातिक मेऽद्रयः ॥१४१॥ जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त में ये आठ पर्वत अपनी-अपनी दिशा में बयालीस हजार योजन दूर रहे हैं । (१४१) . सुवर्णाङ्करत्नरूप्यस्फटिकैर्धटिताः क्रमात् । ... दिश्याश्चत्वारोऽपि शैलाः सर्वविदिक्षु रत्नजाः ॥१४२॥ पूर्व दक्षिण पश्चिम, उत्तर इन चार दिशाओं के वेलंधर पर्वत अनुक्रम से सुवर्ण अंकरत्न, चान्दी और स्फटिक से बने है और विदिशा के पर्वत रत्नों से बने है । (१४२) ... अष्टाप्यमी योजनानां, सहस्रं सप्तभिः शतैः । .. एकविंशः समधिकमुत्तुङ्गत्वेन वर्णिताः ॥१४३॥ - ये आठ पर्वत एक हजार सात सौ इक्कीस (१७२१) योजन से कुछ अधिक ऊंचाई वाले कहां है । (१४३) ' चतुः शती योजनानां, त्रिशां क्रोशाधिकाममी । वसुधान्तर्गताः पद्मवेदिकावनमण्डिताः ॥१४४॥ .. ये आठ पर्वत चार सौ तीस योजन और एक कोस जमीन के अन्दर रहे है और ऊपर के विभाग में पद्म वेदिका तथा वन शोभायमान है । (१४४) ... मूले सहस्रं द्वाविंशं, सर्वेऽपि विस्तृता अमी । त्रयोविंशानि मध्ये च, शतानि सप्त विस्तृताः ॥१४५॥ योजनानां चतुर्विशां, चतुः शतीमुपर्यमी । विस्तृता सर्व तो व्यासज्ञानोपायोऽथ तन्यते ॥१४६॥ . या
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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