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(१६) कल्प्यन्तेऽशास्त्रयोऽमीषां, सचैककः प्रमाणतः । त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि, त्रय स्त्रिंशं शतत्रयम् ॥७४॥ योजनानां योजनस्य, तृतीयांशेन संयुतम् । अधस्तने तृतीयांशे, तत्र वायुर्विजृम्भते ॥७५॥ मध्यमे च तृतीयांशे, वायुरि च तिष्ठतः ।। तृतीये च तृतीयांशे, वर्तते केवलं जलम् ॥७६॥
इन कलशों के तीन-तीन विभाग की कल्पना करनी, उनका एक-एक का । प्रमाण ३३३३३६ १/३ योजन होता है, उसमें नीचे के तीसरे विभाग में वायु है, मध्य के तीसरे विभाग में वायु और पानी है और ऊपर तीसरे विभाग में केवल पानी है। (७४-७६)
अन्येऽपि लघुपाताल कलशा लवणाम्बुधौ । सन्ति तेषामन्तरेषु, क्षुद्रालिज्जरंसंस्थिताः ॥७॥
इस लवण समुद्र में अन्य भी छोटे पाताल कलश हैं जो छोटे घड़े के आकार वाले हैं और ये चार बड़े पाताल कलशों के बीच में रहे हैं । (७७)
तथोक्त जीवाभिगम वृत्तौ - 'तेषां पाताल कलशा नामन्तरेषु तत्र तत्र देशे यावत् क्षुद्रालिज्जरसंस्थानाः क्षुल्लाः पाताल कलशाः प्रज्ञप्ता' इति ।
'श्री जीवाभिगम की वृत्ति में भी कहा है कि उन पाताल कलशों के बीच के आन्तरों में उस स्थान में छोट घड़ों के आकार वाले छोटे पाताल कलश कहे हैं।'
अत्रायं संप्रदाय :जम्बूद्वीपवेदिकान्तादतीत्य लवणाम्बुधौ । पहस्रान् पञ्चनवतिं, तत्रायं परिधिः किल ॥८॥ सल्लक्षद्वयनवतिसहस्र विस्तृते भवेत् । - नव लक्षाः सप्तदश, सहस्राणि च षट्शती ॥७६॥
यहां इस तरह से वृद्ध परम्परा है - जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्तिम में लवण समुद्र में पंचानवे हजार योजन जाने के बाद यह परिधि आती है । इस परिधि •