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सहस्रातिक्रम एवंउभयतो मूल विष्कम्भाधिकायापञ्चचत्वारिंशत्सहस्ररुपायां विष्कम्भवृद्धौ सत्यां यथोक्तो लक्षयोजनरूपो विष्कम्भः संपद्यते, एवं हानिरपि सा त्येषां मध्ये दश योजन सहस्राणि यावल्लक्ष योजन विष्कम्भता कप्युक्ता न दृश्यते, तदत्र तत्वं बहुश्रुता विदन्ति ॥" . .
"इस तरह से प्रवचन सारोद्वार की टीका में कहा है । परन्तु यह शास्त्र वचन तब घटता है जबकि मध्यप्रदेश में दस हजार योजन से अर्थात् बाहर की दस हजार योजन के साथ में गिनकर एक लाख योजन चौड़ाई होती है क्योंकि प्रदेश की वृद्धि से ऊपर पैंतालीस हजार योजन पार होने के बाद दोनों तरफ से मूल चौड़ाई की दस हजार योजन और पैंतालीस, पैंतालीस हजार योजन रूप चौड़ाई की वृद्धि होने से यथोक्त लाख योजन रूप चौड़ाई प्राप्त होती है । इसी तरह हानि भी गिन लेना परन्तु . यह मध्य में दस हजार योजन से लेकर अर्थात् बाहर के १०००० योजन गिनने से : एक लाख योजन तक की चौड़ाई कही दिखती नहीं है, इसलिए तत्व तो बहुश्रुत ज्ञानी पुरुष ही जाने।"
योजनानां, लक्षमेकमवगाढा भुवोऽन्तरे । ' रत्नप्रभामूलभागं, द्रष्टुमुत्कण्ठिता इव ॥१८॥
रत्न प्रभा पृथ्वी के मूल विभाग को देखने के लिए उत्कंठित बने हों इस तरह ये कलश पृथ्वी के अन्दर एक लाख योजन गहरे हैं। (६८)
लक्षद्वयं योजनानां, सहस्राः सप्त विंशतिः । सप्तत्याढयं शतमेकं, त्रयः क्रोशास्तथोपरि ॥६६॥ एतत्पाताल कलशमुखानामन्तरं मिथः । . एतन्मूल विभागानामप्येतावदिहान्तरम् ॥७०॥
एक पाताल कलश के मुख से दूसरे पाताल कलश के मुख का अन्तर दो लाख सत्ताईस हजार एक सौ सत्तर योजन तथा तीन कोस (२,२७,१७० योजन ३ कोस) का है इस तरह ही उसके मूल-नीचे तली का भी अंतर समझना । (६६-७०)