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________________ (५६०) योग शास्त्र की वृत्ति में तो कहा है कि - "विजयादि चार अनुत्तर विमान में उत्पन्न होते देव 'द्विचरण' होते हैं ।" तत्त्वार्थ भाष्य में भी कहा है कि - "विजयादि अनुत्तर विमानों के देव 'द्विचरम' होते हैं। द्विचरम का अर्थ - वहां से च्यवन होकर फिर दो बार जन्म लेकर मोक्ष में जाता है ।" . उसकी टीका में भी द्विचरम का स्पष्टीकरण इस तरह है - वहां से विजयादि विमानों से च्यवन कर उत्कृष्ट से दो बार जन्म लेकर मनुष्यत्व में वह देव सिद्धि को प्राप्त करता है - विजयादि विमान से च्यवन कर मनुष्य होता है, बाद फिर, विजयादि में देव होता है उसके बाद मनुष्य होता है और वहां से सिद्धि गति प्राप्त करता है। पांचवे कर्मग्रन्थ में कहा है कि . . तिरिनर यति जो आणं नरभव'जु अस्स च उपल्लते सर्दु ॥ ... अर्थात इस गाथा की टीका के अनुसार विजयादि विमानो में दो बार गया हुआ भी जीव कई जन्मों में भ्रमण करता है । इतना ही नहीं परन्तु नरक, तिर्यंच गति योग्य भी कर्म बन्धन करता है । इस तरह से कर्म ग्रन्थ में दिखता है इसलिए यहां तत्त्व तो केवली गम्य है। . . , सर्वार्थदेवा संख्येया असंख्येयाश्चतुर्पु ते । एतेष्वेकक्षणोत्पत्तिच्युतिसंख्याऽच्युतादिवत् ॥६४५॥ सवार्थ सिद्ध विमान में देव संख्याता है और शेष के चार अनुत्तर विमानों में देव असंख्याता है । इस विमान के देवों की उत्पत्ति और च्यवन की संख्या अच्युत के समान समझ लेना । (६४५) पल्योपमस्यासंख्येयो, भागाः परममन्तरम् । .. सुरोत्पत्तिच्यवनयोर्विजयादिचतुष्टये ॥६४६॥ विजयादि चार विमान में देवताओं के च्यवन और उत्पत्ति का उत्कृष्ट विरह काल पल्योपम का असंख्यातवा भाग होता है । (६४६)
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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