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दशभिः सार्द्धदशभिरे कादशभिरेव च । मासैरमी उच्छवसन्ति, स्थितिसागरसंख्यया ॥४७५॥
ये देव अपनी-अपनी स्थिति अनुसार से दस, साढ़े दस और ग्यारह महीने में चासोच्छवास लेते हैं । (४७५)
च्युतावुत्पत्तौ च, संख्या, भोगो गत्यागती इह। अवधिज्ञान सीमा चं सर्व प्राणतनाकवत्॥४७६॥ किंत्वाद्याभ्यामेव सहननाभ्यां सत्त्वशालिनः ।
आराधितार्हताचारा,उत्पद्यन्तेऽत्र सद्गुणाः ॥४७७॥
च्यवन उत्पत्ति की संख्या, योग गमनागमन, अवघि ज्ञान की मर्यादा आदि प्रणत देवलोक के समान है। परन्तु यहां आद्या दो संहनन वाले, सत्वशाली श्री जैन शासन के आचार की सुन्दर आराधना करने वाले और गुणीजन (गुणों से युक्त जीव) उत्पन्न होते हैं । (४७६-४७७)
च्युत्युत्पत्ति वियोगोऽत्र, संख्येया वत्ससगुरूः । . आरणेऽब्दशतादर्वाक्,त एव चाच्युतेऽधिकाः ॥४७८॥
च्यवन और उत्पत्ति का विरह संख्यात वर्ष का है आरण देवलोक में सौ वर्ष अन्दर और अच्युत देवलाक में उससे कुछ अधिक होता है। (४७८)
अत्रापि प्रतरे तुर्ये ऽच्युतेऽच्युतावसंसकः । ईशानवद्भवेदंकाद्यवतंसकमध्यगः ॥४७६॥
इस देवलोक में भी चौथा अच्युत नाम के प्रतर में ईशान देवलोक के समान अकांवतंसक आदि चार विमान के बीच में अच्युता वतंसक नामक विमान होता है। (४७६)
तत्राच्युत स्वर्गपतिर्वरीवर्त्ति महामतिः । योऽसौ दाशरथेरासीत्प्रेयसी पूर्वजन्मनि ॥४८०॥
वहां अच्युत स्वर्ग का महाबुद्धिमान इन्द्र शोभायमान होता है कि जो पूर्व जन्म में दशरथ पुत्र रामचन्द्र जी की पत्नि सीता का जीव है । (४८०)