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(२६३) आश्चर्य कृनूल रत्त स्वर्ण विच्छि त्ति शालिनः । वातोद्धत वैजयन्ती पताका कान्तमौलयः ॥११३॥ छत्रातिच्छत्रकोपेताः स्वर्ण रत्नविनिर्मितैः । . स्तूपि काशिखरैः शस्ताः, सुख स्पर्शाः समन्ततः ॥११४॥ विकस्वरैः शतपत्रे, पुण्डरीकैश्च पुण्ड्कैः । रलार्द्धचन्द्रै रम्याश्च, विविधैर्मणिदाभमिः ॥११५॥ अन्तर्वहिस्तपनीयवालुकाप्रस्तटोद्भटः । रत्नस्तम्भशतोद्च्चन्मरीचिचक्र चारवः ॥११६॥
तारा के विमानों का विस्तृत वर्णन करते हैं :- तारा के ये सब विमान अति उज्जवल है । चारों तरफ फैलती प्रभा के पुंज से अंधकार के अंकुर, दूर करने वाले हैं । आश्चर्यकारक अति सुन्दर नूतन रत्न और सुवर्ण कान्ति प्रभा से शोभते है, वायु से लहराती ध्वजा-पताका से उसका उपरित भाग सुन्दर लगता है। उसके ऊपर छत्र इस तरह छत्राति छतों से युक्त सुवर्ण और रत्न निर्मित्त स्तूप के शिखरों से सुन्दर-प्रशस्त दिखते हैं और सर्वतः सुखकारी स्पर्शवाले हैं । विकस्वर शतपत्र कमल-पुंडरीक कमल-श्वेत कमल तथा रत्न के अर्ध चन्द्र से और विविध मणिमय पुष्प मालाओं द्वारा अत्यन्त रमणीय लगता है । अन्दर-बाह्य दोनों तरफ सुवर्णमय रेती के प्रस्तरों से सुन्दर दिखते हैं । और रत्न के सैंकडों स्थंभ से निकलती ज्योत्पना के समूह से सुशोभित लगता है । (११२-११६)
तत्र स्वस्व विमानेषु, स्वस्वोत्पादास्पदेषु च । उत्पद्यन्ते ज्योतिषिकाः स्वस्व पुण्यानुसारतः ॥११७॥
वहां अपने-अपने विमानों के, अपने-अपने उत्पत्ति के स्थान में अपनेअपने पुण्यानुसार से ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है । (११७)
ज्योतिश्चक्राधिपौ तत्र, महान्तौ शशि भास्करौ । सामानिकं सहस्त्राणां, चतुर्णामात्मरक्षिणाम् ॥११८॥ षोडशानां सहस्राणां पर्षदा तिसृणामपि । सेनापतीनां सप्तानां, सैन्यानामपि तावताम् ॥१६॥