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(१७७) . तत एव चित्रलेश्याः, शैत्यौण्यादन्तरान्तरा ।। वाग्मिनो वाक्यसंदर्भा, इवानुनयकाङ्गिणः ॥६॥
पंडितो के वाक्य संदर्भ जिस तरह से अनुसरण नयो की अपेक्षा रखता है उसी तरह बीच-बीच में अंतर में शीतलता और उष्णता होने से विचित्र प्रकार की विचित्र लेश्या वाला उस चन्द्र सूर्य का अन्तर है । (६)
चन्द्रास्तत्र, सुख लेश्या, नात्यन्तं शीतलत्विषः । मनुष्यलोके शीतर्तुभाविपीयूष भानुवत् ॥१०॥
मनुष्यलोक में शीतल ऋतु में चन्द्र के जो अत्यंत शीतल किरण होते है वैसे वहां नहीं होते, इससे ही वहां चन्द्र सुख. उत्पन्न करने वाली लेश्यायुक्त किरण वाला होता है । (१०) . . .
भानवोऽपि मन्दलेश्या न त्वतींवोष्णकान्तयः । नरक्षेत्रे निदाधर्तुभावितिग्मांशुबिम्बवत् ॥११॥
तथा सूर्य भी मन्द उष्ण-गरम किरण वाला होता है । परन्तु मनुष्य लोक में उष्ण काल के अन्दर अति उष्ण किरणों वाला सूर्य के समान नहीं होता, अपितु मन्द कान्ति वाला होता है । (११) : .
एषां प्रकाश्य क्षेत्राणि, विष्कम्भाल्लक्षमेककम् । योजनानामनेकानि, लक्षाण्यायामतः पुनः ॥१२॥
इन सूर्य चन्द्र का प्रकाश क्षेत्र चौडाई में एक लाख योजन का है जबकि लम्बाई में अनेक लाख योजन का विस्तार है । (१२)
पक्वेष्टकाकृतीन्येवं, चतुरस्राणि यद्भवेत् । पक्वेष्टका चतुष्कोणा, वह्वायामाऽल्प विस्तृतिः ॥१३॥
ये सूर्य-चन्द्र के प्रकाश क्षेत्रों में गरम ईंट का आकार वाले है अर्थात् जैसे पकी हुई ईंट लम्बाई में अधिक होती है और चौडाई में अल्प होती है, वैसे उसके द्वारा वह ईंट चार कोने वाली और लम्ब-चोरस होती है वैसे ही ये सूर्य-चन्द्र का प्रकाश्य क्षेत्र भी चार कोन वाला और लम्ब-चोरस जानना । (१३)