SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८४) विजयो को छोड़कर वक्षस्कार पर्वत, वनमुख, अंतर्नदियां मेरूपर्वत और उसके वन-भद्रशाल वन की चौड़ाई मिलाने से दो लाख छियालीस हजार तीन सौ (२४६३४६) योजन प्रमाण होता है । इस राशि को चार लाख योजन रूप द्वीप की चौडाई में से बाद करके सोलह से भाग देने से जो विस्तार आता है वह विजयो का विस्तार होता है और वह नौ हजार छ: सौ तीन (६,६०३) योजन और छ: योजन ६/१६ योजनांश एक विजय का विस्तार है । (१५६-१५६) वह इस प्रकार थे : ४००००० = धात की खंड की चौड़ाई २४६३४३ भद्रशाल वन आदि की चौड़ाई वक्षस्कार, वनमुख, अन्तर्नदी, मेरू पर्वत भद्रशावन निकालने के बाद आई संख्या १५३६५४ १६)१५३६५४(६६०३ १४४ = ६६०३ ६/१६ योजनांश एक विजय का विस्तार आता है । एवमिष्टान्यविष्कम्भलर्जितद्वीपविस्तृते । स्व स्व सङ्ख या विभक्ताया, लभ्यतेऽमीष्ट विस्तृतिः ॥१६०॥ इस तरह से इष्ट अर्थात जिसकी चौड़ाई खोजना हो तो इष्ट स्थान से अन्य वस्तुओं की चौड़ाई से रहित द्वीप के विस्तार को अपनी अपनी संख्या से भाग देने से इष्ट स्थान का विस्तार मिल सकता है । (१६०) ततत्र- विनाऽद्रीन् विजयादीनां, व्यास सङ्कलनात्वियम् । तिस्रो लक्षा द्विनवतिः, सहस्त्रा योजनात्मकाः ॥१६१॥ अनेन वर्जिते द्वीपविष्कम्भे विहतेऽष्टभिः । वक्षस्काराद्रिविष्कम्भो, लभ्यः सहस्र योजनः ॥१६२॥
SR No.002273
Book TitleLokprakash Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy