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________________ (५१७). ६५- अवभासक, ६६- श्रेयस्कर, ६७- क्षेमंकर ६८- आयंकर ६६- प्रभंकर, ७०- अरजा ७१- विरजा, ७२- अशोक,७३- वीतशोक ७४- विमल ७५- वितत, ७६- विवस्त्र, ७७- विशाल, ७८- शाल, ७६- सुव्रत, ८०- अनिवृत्ति ८१- एक जटी,८२- द्विजटी,८३- करिक,८४- कर,८५- राजा,८६- अर्गल,८५- पुष्पकेतु, ८८- भावकेतु । इस तरह ग्रहअस्सी कहे गये हैं । (७०३ से ७१४ तक) ग्रहास्त सर्वे वक्राति चारादिगति भावतः । गतावनियताः तेन नैतेषां प्राक्तनैः कृता ॥७१५॥ गति प्ररूपणा नापि मण्डलानां प्ररूपणा । लोकात्त् केषांचित् किंचित् गत्यादि श्रूयतेऽपिहि ॥१६॥ युग्मं ।। इन सब ग्रहों की गति वक्र और अनियमित रूप होने से पूर्वाचाया न इनकी गति या मंडल के विषय में कुछ भी नहीं कहा है । यद्यपि उसमें से कुछ ग्रहों की गति आदि किंचित् स्वरूप लोगों के पास से श्रवण गोचर होता है । (७१५-७१६) मेरोः प्रदक्षिणावर्त भ्रमन्त्येतेऽपि मण्डलैः । सदानवस्थितौरेव दिवाकरशंशांक वत् ॥७१७॥ वे ग्रह भी सूर्य चन्द्रमा के समान हमेशा अनियमित मंडल द्वारा मेरूपर्वत के चारों तरफ़ परिभ्रमण करते हैं । (७१७) • . नापि चक्रे तारकाणां मण्डलादि निरूपणम् । अवस्थायिमण्डलत्वाच्चन्द्राद्ययोगचिन्तनात् ॥१८॥ . यहां ताराओं के मण्डलादि निरूपण भी नहीं कहा है, क्योंकि उनका अवस्थित मंडल है, और इससे चन्द्रादि साथ में उनका योग नहीं होता है । (७१८) तथोक्तं जीवाभिगत सूत्रे :णक्खत्ततारागाणं अवट्ठिया मंडला मुणेयव्वा । तेवि य पयाहिणाव्रतमेव मेरूं अणु परिंति ॥७१६॥ इस सम्बन्ध में श्री जीवाभिगम सूत्र के अन्दर ऐसा उल्लेख मिलता है, कि 'नक्षत्र और ताराओं के मंडल अवस्थित है, और वे भी मेरू पर्वत के चारों तरफ परिभ्रमण करते हैं । (७१६) एव रवीन्दुग्रहऋक्षताराचारस्वरूपं किमपि न्यगादि । शेष विशेषं तु यथोपयोगं ज्योतिष्क चक्रावसरेऽभिधास्ये ॥७२०॥
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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