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हस्ताकारनिभं च मौक्तिकनिभं चान्यत् प्रवालोपमम । धिष्ण्यं तोरणवत् स्थितं मणिनिभं सत्कुण्डलाभं परम् । क्रुध्यत्केसरिविक्रमेण सद्दशं शय्यासमानं परम्, चान्यद्दन्तिविलासवस्थितमतःशृंगाटक व्यक्तिच ॥६४४॥ त्रिविक्रमाभं च मृदंग रूपम् वृत्तं ततोऽन्य धमल द्वयाभम् । पर्यंकरूपं मुरजानुकार- मित्येवमश्वादिभचक्ररूपम् ॥६४५॥
इत्याकृति :- लोग में मान्यं रत्नमाला' नामक ग्रन्थ है, उसमें तो अश्विनी. से ले कर अट्ठाईस नक्षत्रों के आकार अनुक्रम से दिये हैं, वे इस प्रकार हैं:- अश्व का मुख समान, योनि, क्षुर, गाड़ी, मृग का मस्तक मणि, घर, शर-बाण, चक्र की नाभि, शालि का वृक्ष, शय्या, पलंग, हस्त, मौक्तिक, प्रवाल, तोरण, मणि, कुंडल, कोपायमान सिंह का पंजा, शय्या, झूलता हाथी शिगोड़े, तीन पैर चिन्ह, मृदंग वर्तुल, . दो जुड़े हुए पलंग और मुरजा होते हैं । (६४३-६४५) :
इस तरह आकृति का वर्णन पूर्ण हुआ। . .
सप्तषष्टिलवैः सप्त विंशत्याभ्यर्धिकान्यथ । , योगो नवमुहूतानि शशिनाभिजितो मतः ॥६४६।।
नक्षत्रों का सूर्य-चन्द्र के साथ में संयोग काल के मान विषय में कहते हैं - इसमें प्रथम चन्द्रमा के साथ में संयोग काल के मान विषय में वर्णन करते हैं, अभिजित् नक्षत्र का चन्द्रमा के साथ में साधिक ६२७/६७ मुहूर्त प्रमाण का योग . रहता है । (६४६)
ज्येष्टा श्लेषा भरण्याा स्वातिश्च शततारिका। मुहूर्तानि पंचदश योग एषां सुधांशुना ॥६४७॥
ज्येष्टा, अश्लेषा, भरणि, आर्द्रा, स्वाति तथा शततारा इन छ: नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ में पंद्रह मुहूर्त प्रमाण योग रहता है । (६४७)
उत्तरात्रितयं. ब्राह्मी विशाखा च पुनर्वसू । पंचचत्वारिंशदेषा मुहूर्तान् योग इन्दुना ॥६४८॥
उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तरा भाद्रपदा, ब्राह्मी, विशाखा और पुनर्वसू इन छ: का चन्द्रमा के साथ में ४५ मुहूर्त तक योग रहता है । (६४८)
पंचदशानां शेषाणामुडूनां शशिना सह । योगस्त्रिंशन्मुहूर्तानीत्येवमाहुः जिनेश्वराः ॥६४६॥