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________________ (४६३) १८४ बढे, फिर भाग नहीं लगने से १८४ और १७६८ दोनों संख्या को आठ से भाग दे कर २३/२२१ होते हैं । इस तरह उत्तर में दो अहो रात, २ २३/२२१ मुहुर्त अर्थात् ६२ २३/२२१ मुहूर्त आता है । (३७० से ३७६) एषा मुहूर्तद्वाषष्टिः सवर्णनाय गुण्यते । । एक विंशाभ्यां शताभ्यां ये चोपरितनाः लवा : ॥३७७॥ त्रयोविंशतिरूक्ता प्राक् ते क्षिप्यन्ते भवेत्ततः । त्रयोदश सहस्राणि सतत्वा सप्तशत्यपि ॥३७८॥ उसे सवर्ण लाने के लिए २२१ के द्वारा गुणा करने पर तेरह हजार सात सौ पच्चीस (१३७२५) आता है । (३७७-३७८) सर्वान्तमंण्डलस्थस्य परिधिर्यः पुरोदितः । एकविंशत्यधिकाभ्यां शताभ्यां सोऽपि गुण्यते ॥३७६॥ जात षट् कोटयः षण्णवतिः लक्षाः स्वरूपतः । चतुस्त्रिंशत् सहस्राणि षट्शत्येकोनसप्ततिः ॥३८०॥ सहसैस्त्रयोदशभिः सतत्वैः सप्तभिः शतैः । .एषां भागे हृते लब्या मुहूर्तगतिरेन्दवी ॥३८१॥ योजनानां सहस्राणि पंचोपरि त्रिसप्ततिः । चतुश्चत्वारिंशान्यंशशतानि सप्तसप्ततिः ॥३८२॥ . सर्वान्तर मंडल में रहे चंद्रमा की पूर्व में जो परिधि कही है, उसे भी २२१ द्वारा गुणा करने पर वह छः करोड़ छियानवे लाख चौंतीस हजार छ: सौ उनहत्तर (६,६६,३४,६६६) आता है, और उसे तेरह हजार सात सौ पच्चीस (१३७२५) से भाग देने से चन्द्रमा की मुहूर्त गति ५०७३ ७७४४/१३७२५ योजन आती है । (३७६-२००३८२) मुहूर्तगतिरित्येवं भाव्येन्द्रोः प्रतिमण्डलम् । विभाज्योक्तभाजकेन प्राग्वत् परिरयं निजम् ॥३८३॥ इस तरह से दोनों चन्द्रमाओं के प्रत्येक मंडल में मुहुर्त गति, पूर्व के समान अपनी परिधि को उक्त भाजक से भाग देने से जो संख्या आए उसे समझ लेना । (२८३)
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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