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________________ (ix) चार्तुमासिक-प्रवास काल में उपाश्रय में इनका व्याख्यान चल रहा था । उसी समय एक बृद्ध ब्राह्मण इनकी धर्म सभा में प्रवेश करता है धर्म सभा पूर्ण रूपेण यौवन पर है । व्याख्यान कर्ता एवं श्रोता गण श्रावक वर्य दत्त चित्त आध्ययात्म रस का मनोयोग से रसपान कर रहे हैं । वृद्ध ब्राह्मण के सभा कक्ष में प्रवेश पर जैसे ही 'गणिवर्य' श्री विनय विजय' जी महाराज साहब ने व्यास पीठ से उतर कर आगे बढ़कर उन वृद्ध ब्राह्मण का स्वागत किया, उनका हाथ पकड़ कर आगे लाये तो सब सभासद श्रावक आश्चर्य चकित रह गये । विचार करते हैं कि ये पूज्य गणि जी महाराज श्री विजय विजय' श्री म० सा० हैं, जिन्होंके नाम का डंका सारे खंभात में बज रहा है । जिनका सर्वत्र जयपोष हो रहा है। वे इस वृद्ध ब्राह्मण के इस तरह से भक्ति भाव प्रदर्शित कर रहे हैं । श्रावकों ने उपाध्याय जी महाराज से पूछा कि हे गुरू वर्य ! ये महाशय कौन हैं ? उपाध्याय 'श्री विजय विजय' जी म० सा० ने फरमाया कि, हे भाग्य शालियों! ये हमारे काशी के विद्या दाता गुरु हैं । इनकी ही परम कृपा और परिश्रम से मैं आज इस स्थान पर पहुँचा हूँ । इनका मुझ पर बहुत बडा उपकार है । मुनि महाराज का इतना कहना मात्र ही था कि श्रद्धावान श्रावकों ने बिना किसी प्रेरणा व कहने के कुछ ही क्षणों में गुरु दक्षिणा के रुप ७००००, सत्तर हजार रुपये की भेंट आगन्तुक पंडित जी के समक्ष रख दी । कितनी श्रद्धा थी, कितनी भक्ति थी उपाध्याय श्री जी के मन में अपने उपकारी के प्रति । आज ऐसा उदाहरण शायद ही सश्रम खोजनें पर भी न मिले। उपकारी गरुदेव रचित अनेकों ग्रन्थ प्रकाश में आये हैं। विस्तार भय से सब का पूर्ण विवेचन संभव नहीं है, फिर भी संक्षेप में इसका परिचय प्रस्तुत करना आवश्यक सा जान पड़ता है । उनमें से कुछ का किंचित् मात्र परिचय निम्नवत् है । (१) हेम प्रक्रिया :- आगम ग्रन्थों के ज्ञानार्थ सर्व प्रथम व्याकरण का ज्ञान परमावश्यक है । कलि काल सर्वज्ञ श्री हेम चन्द्र सूरीश्वर जी म० सा० ने जैन व्याकरण को आठ 'अध्यायों में दस हजार श्लोक (लधुवृत्ति) प्रमाण से पूरा किया तथा अठारह हजार श्लोक प्रमाण से वृहद् वृत्ति की रचना की थी। उपाध्याय श्री जी ने उस पर चौरासी हजार श्लोक प्रमाण, धातु पारायण, उणादि गण, धातु पारायण, न्यास ढुंढिका टीका आदि प्रस्तुत की । उपाध्याय जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से इस व्याकरण शास्त्र को सरल सुगम और सरस बनाने में भारी पुरुषार्थ किया है । इन्होंने इस पर लघु प्रक्रिया रची । क्रमबार संज्ञा-संधि-षड्लिङ -तद्धित और धातुओं में शब्द रचना की विधि बताई । सम्पूर्ण व्याकरण शस्त्र को अति सुबोध और सुगमता से सुग्राह्य और बाल सुलभ बनाने की दृष्टि से पूज्य श्री जी ने अपनी विशिष्ट कलाओं से युक्त २५०० श्लोक प्रमाण इस ग्रन्थ को संवत् १७६० में पूर्ण
SR No.002272
Book TitleLokprakash Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages572
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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