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________________ (५१) किए बिना जाता है। ऐसे शब्द हैं । पंच संग्रह की वृत्ति में तो इस तरह कहा है कि'जितने आकाश प्रदेशों के अवगाह कर जीव यहां रहता है उतने ही आकाश प्रदेशों को ऊर्ध्व जाते अवगाह करते जाता है।' तत्त्व तो इसमें केवली गम्य है। एकस्मिन्समये चोर्ध्व लोके चत्वार एव ते । सिद्धयन्त्युत्कर्षतो दृष्टमधोलोके मतत्रयम् ॥६५॥ विंशतिविंशतिश्च चत्वारिंशदिति स्फुटम ।। उत्तराध्ययने संग्रहण्यां च सिद्ध प्राभृते ॥६६॥ एक समय में ऊर्ध्व लोक में से उत्कृष्ट चार ही सिद्ध होते हैं । अधोलोक के लिए तीन भिन्न-भिन्न मत है। उत्तराध्ययन सूत्र में बीस की संख्या कही है। संग्रहणी में बाईस कही हैं तथा सिद्ध प्राभृत में चालीस कही हैं । (६५-६६) _.. 'बीस अहे तहेव इति उत्तराध्ययने जीवाजीव विभक्त्यध्ययने। उनुहोतिरिय लोए चउवा वीसट्ठ सयं इति संग्रहण्यांम् ।। वीसं पहुत्तं अहोलोए इति सिद्ध प्राभृते॥ तट्टीकायां विंशति पृथक् त्वं द्वे विंशती इति॥' अधोलोक में से बीस - इस तरह उत्तराध्ययन सूत्र के जीवाजीव विभक्ति नामक अध्ययन में पाठ आता है। ऊर्ध्वलोक में से चार, अधोलोक में से बाईस और तिर्यक् लोक में से एक सौ आठ इस तरह संग्रहणी में पाठ है । 'अधोलोक में से दो बीस' इस तरह सिद्ध प्राभृत में पाठ है । बीस पृथकत्व अर्थात् दो बीस-चालीस इस तरह उसकी टीका में कहा है। अष्टोत्तर शतं तिर्यग् लोकं च द्वौ पयोनिधौ । · नदीनदादिके शेष जले चोत्कर्षतस्त्रयः ॥६७॥ विशतिश्चैक विजये चत्वारो नन्दने वने । पंडके द्वावष्ट. शतं प्रत्येकं कर्म भूमिषु ॥६८॥ प्रत्येकं सहरणतो दशाकर्म महीष्वपि । पंच चाप शतोच्चौ द्वौ चत्वारो द्विकरांगक ॥६॥ जघन्योत्कृष्ट देहानां मानमेतनिरूपितम् । मध्यांगास्त्वेक समये सिद्धयन्त्यष्टोत्तरं शतम् ॥१००॥ उत्कृष्ट तिर्यक लोक में से १०८, समुद्र में से दो और नदी नदादिक शेष जलाशय में से तीन सिद्ध होता है। उत्कृष्ट एक विजय में बीस, नंदन वन में से चार, पंडकवन में से दो और प्रत्येक कर्मभूमि में से १०८ सिद्धि होती है। देवता आदि
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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