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________________ (५०) तत्रापि गच्छतः सिद्धिं संयतस्य महात्मनः । सर्वै गैर्विनिर्याति चेतनस्तनुपंजरत् ॥६४॥ . जब सिद्ध की गति प्राप्त करने वाले संयमी महात्मा के प्राण निकलते हैं तब वह सर्व अंगों में से निकलते हैं । (६४) तदुक्त स्थानांग पंचम स्थानके पंचविहे जीवस्स णिजाण मग्गे पत्नत्ते।पाएहिं ऊरूंहिं उरेणं सिरेणं सव्वंगेहि। पाएहिं निजायमाणे निरयगामी भवति।उरूहि निजाय माणे तिरियगामी भवति।उरेणं निजायमाणे मणुयगामी भवति। सिरणं निजायमाणे देवगामी भवति। सव्वंगेहिं निज्जायमाणे सिद्धिगति पजवसाणे पणत्ते॥ स्थानांग सूत्र के पाचवें स्थानक में कहा है कि- जीव के निकलने के पांच द्वार हैं । जीव- पैर से, उरु-जंघा से, हृदय से, मस्तक या सर्व अंगों से निकलता है। पैर से जीव निकले तो नरक गामी, उरू से निकले तो तिर्यंच, हृदय से निकले तो मनुष्य, मस्तक से निकले तो देवगति तथा सर्वांग से निकले तो सिद्धिगामी होता है। भवोपग्राहि कर्मान्तक्षण एवं स सिद्धयति । उद्गच्छन्न स्पृशद् गत्या ह्यचिन्त्या शक्तिरात्मनः ॥ संसार में जकड़कर रखने वाले कर्मों का ही क्षण में अंत आता है । उसी क्षण में बीच रहे प्रदेशों को स्पर्श किए बिना ऊँचे चढ़कर सिद्ध होता है। क्योंकि आत्मा की अचिन्त्य शक्ति है। अत्र च अस्पृशन्ती सिद्धयन्तराल प्रदेशान् गतिर्यस्य सः अस्पृशद्गति। अन्तराल प्रदेश स्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिरिष्यते। तत्र च एक एव समय: अतः अन्तराले समयान्तरस्या भावात् अन्तराल प्रदेशानाम् असंस्पर्शनम् इति औपपातिक सूत्र वृत्तौ॥ अबगाढ प्रदेशेभ्यः अपराकाश प्रदेशेषु तु अस्पृशन् गच्छति इति महाभाष्यवृत्तो॥ यावत्सु आकाश प्रदेशेषु इह अवगाढः तावतः एवं प्रदेशान् ऊर्ध्वमपि अवगाहमानः गच्छति इति पंच संग्रह वृत्ती॥ तत्त्वं तु केवलि गम्यम् ॥ सिद्धि पहँचने के मार्ग में जो प्रदेश आते है उसे स्पर्श किए बिना चला जाय वह 'अस्पृशत् गति' कहलाती है। बीच के प्रदेशों को स्पर्श करते जाये तो वह सिद्धि स्थान पर समय में नही पहुँचता। और यहां तो केवल एक ही समय लगता है, बीच में अन्य समय का अभाव है, इसीलिए ही कहा है कि बीच के प्रदेशों का स्पर्श नहीं करता है। यह बात औपपातिक सूत्र की वृत्ति में कही है। महाभाष्य की वृत्ति में 'जीव अवगाढ किए प्रदेशों के सिवाय के अन्य आकाश प्रदेशों को स्पर्श
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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