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________________ (५२) संहरण के कारण प्रत्येक अकर्म भूमि में से भी दस सिद्ध होते है। पांच सौ धनुष्य की काया वाले उत्कृष्ट से दो ही सिद्ध होते हैं। दो हाथ की काया वाले उत्कृष्ट चार सिद्ध गति में जाते है। यह सारा उत्कृष्ट और जघन्य शरीर वाले के विषय में समझना। मध्यम शरीर मान वाले तो एक समय में एक सौ आठ सिद्ध पद करते हैं । (६७ से १००) उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योस्तापाक तुरीययोः ।. अरयोरष्ट सहितं सिद्धयन्त्युत्कर्षतः शतम् ॥१०॥ यत्तु अस्या अवसर्पिण्याः तृतीयारक प्रान्ते श्री ऋषभ देवेन सहाष्टोत्तरं शतं सिद्धाः तदाश्चर्य मध्ये अन्तर्भवतीति समाधेयम् ॥ . विंशतिश्चावसर्पिण्याः सिद्धयन्ति पंचमेऽरके । . . . उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः शेषेषुदश संहृताः ॥१०२॥ उत्सर्पिणी के तीसरे और अवसर्पिणी के चौथे आरे में उत्कृष्ट एक सौ आठ सिद्ध होते हैं । इस अवसर्पिणी के तीसरे आरे के अन्तिम श्री ऋषभ देव के साथ में एक सौ आठ सिद्ध हुए थे। इस विषय एक आश्चर्यभूत हुआ है। इस तरह समाधान करना । अवसर्पिणी के पांचवें आरे में बीस और दोनों के शेष आराओं में दस सिद्ध होते है। (१०१-१०२) पवेदेभ्यः सुरादिभ्यश्चयुत्वा जन्मन्यनन्तरे । भवन्ति पुरुषाः केचित् स्त्रियः केचिन्नपुंसकाः ॥१०३॥ स्त्रीभ्योऽपि देव्यादिभ्यः स्युरेव त्रैधा महीस्पृशः । क्लीवेभ्यो नारकादिभ्योऽप्येवं स्युर्मनजास्त्रिधा ॥१०४॥ पुरुष वेद वाले देव आदि च्यवन कर अन्य जन्म लेते हैं । उसमें कई पुरुष होते हैं, कई स्त्री होती हैं और कोई नपुंसक भी होते हैं । स्त्री वेद वाली देवी आदि से नपुंसक वेद वाली नारकी आदि से भी इसी तरह से तीन प्रकार के मनुष्य होते हैं। (१०३-१०४) नवस्वेतेषु भंगेषु पुंभ्यः स्युः पुरुषाहि ये । सिद्धयन्त्यष्टोत्तर शतं तेऽन्ये दश दशाखिला ॥१०॥ इस तरह इसके नौ विभाग होते हैं । इसमें जो पुरुष वेद पुरुष होते हैं वही एक सौ आठ सिद्ध होता है और शेष सब दस दस सिद्ध होते हैं । (१०५) दशान्यभिक्षुनेपथ्याश्चत्वारो गृहि वेषकाः । . सिद्धयन्त्यष्टोत्तरशतं मुनि नेपथ्य धारिणः ॥१०६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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