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________________ (२४) ततः प्रतिशलाकाख्यमुत्तपाट्य तस्य सर्षपान । क्षिपेत् पूर्वोक्तया रीत्या परतो द्वीप वार्धिषु ॥१५१॥ उसके बाद साक्षी के लिए सरसों का एक दाना तीसरे 'प्रतिशलाक' नामक प्याले में डालना और फिर उसे पूर्ण भरना और अनवस्थित प्याले को उठाकर शलाक के अन्तिम दाने वाले द्वीप समुद्र से आगे द्वीप समुद्रों में पूर्व के समान सरसों के दाने फेंकना। इस तरह बारम्बार अनवस्थित प्याले को भरते और खाली होते पूर्व के समान शलाक प्याला भर देना और पूर्व के समान शलाक प्याला उठाकर तथा उसके आगे से आगे के द्वीप समुद्रों में खाली करके इसके साक्षी कण तीसरे प्रतिशलाक प्याले में डालना, यह प्रतिशलाक प्याला भी जब शिखा तक भर जाय तब अनवस्थित और शलाक दोनों अपने आप ही भरे हुए रख छोड़ना। क्योंकि इसके साक्षी रूप दाने सामने डालने हैं। शलाक में साक्षी रूप डाले हुए सरसों भरे हैं, वह डालने का अन्य स्थान नहीं है वैसे ही प्रथम अनवस्थित कें साक्षीरूप दानों को डालने का भी स्थान नहीं है। उसके बाद प्रतिशलाक प्याले को उठाकर पूर्व के अनुसार इसमें से सरसों के दानों को आगे से आगे के द्वीप समुद्र में फैंकना। (१४५ से १५१) एवं प्रति शलाकेऽपि निखिलं निष्ठिते सति । साक्षीभूतं कणमेकं क्षिपेन्महाशलाकके ॥१५२॥ ततः शलाकमुत्पाट्य द्वीपाब्धिषु तदग्रतः । सर्षपानयस्य तत्साक्षीस्थाप्यः प्रतिशलाकके ॥१५३॥ ततः क्रमाद्वर्द्धमान विस्तारमनव स्थितम् । उत्पाट्य परतो द्वीप पाथोधिषु कणान् क्षिपेत ॥१५४॥ इस तरह करते जब वह पूर्ण खाली हो जाय तब इसके साक्षीभूत एक दाने को चौथे 'महाशलाक' प्याले में डालना। उसके बाद शलाक के प्याले को उठाकर इसके सरसों को इसके आगे के द्वीप समुद्र में डालकर इसके साक्षी दाने को प्रतिशलाक प्याले में डालना । फिर अनुक्रम से वृद्धि होते विस्तार वाले अनवस्थित प्याले को उठाकर इसके कणो (दानों) को आगे वाले द्वीप समुद्रों में डालना। (१५२ से १५४) प्राग्वदेतत्साक्षिकणैः शलाकाख्यः प्रपूर्यते । तमप्यनेकशः प्राग्वत् संरिच्यैतस्य साक्षिभिः ॥१५५॥ तृतीय परिपूर्येता स कृदेतस्य साक्षिभिः । पल्यो महाशलाकोऽपि सशिखं पूर्यते ततः ॥१५६॥युग्मम् ॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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